४६६ गीता-हृदय चौथे अध्यायमें लिखा है कि इसी परमानन्दके एक छीटसे सारे ससारका काम चलता है-"एषोऽस्य परम आनन्द एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति" (४।५।३२) । इस लम्बे विवेचनसे यह साफ हो गया कि चित्तकी प्रसन्नता ही असल चीज है । उसके होते ही परमानन्दका अनुभव होने लगता है । फिर तो ससारके सारे कष्ट भाग जाते है । मन तो एक ही होता है न ? और जब वही आत्मानन्दमे डूब चुका तो दु खोका अनुभव कौन करे ? "इक मन रह्यो सो गयो स्याम सग कौन भजे जगदीस" ? और जब अनुभव होता ही नही, तो दु ख रही क्या चीज ? वह अन्न-वस्त्रादि की तरह कोई स्थायी या ठोस चीज तो है नही ? वह एक विलक्षण प्रकारकी मानसिक वृत्ति ही तो है, जिसका अस्तित्व उसके अनुभवके साथ ही रहता है । अनुभवके विना वह लापता रहता है, लापता हो जाता है। इस तरह जव मन आत्मानन्दमें ड्बा है तो दुखरूपी उसकी वृत्ति भी हो इसका मौका ही कहाँ रहा इसकी फुर्सत ही कहाँ रही ? जब आत्मज्ञानी या योगी रागद्वेषमे बँधता नही तो उसके मनकी एकाग्रता हमेशा ही बनी रहती है। उसमें वाधा तो कभी पडती नही । वह निरन्तर अविच्छिन्न रहती है । इसीलिये आत्मानन्दका अनुभव भी निरन्तर अविच्छिन्न रहता है । मन वशमे है यह तो 'विधेयात्मा से स्पष्ट ही है। इसीलिये कह दिया है कि सभी तक- लीफोका खात्मा हो जाता है। न तो मानसपटलकी गभीरता कभी भग होती है और न यह वला पाती है । इसी अविच्छिन्न गभीरताका ही नाम प्रसाद है। जिनने गौरसे "ध्यायतो विषयान्" आदि दो श्लोकोको पढके उसी तरह बादके "रागद्वेषवियुक्तस्तु" प्रादि दो श्लोकोको भी पढा होगा उन्हे साफ पता लगा होगा कि पहले दो श्लोकोमें जो वात शुरू की गई थी कि रागद्वेषादिके वशीभूत होनेसे कैसी दुर्गति होती है, उसीके वीचमे ?
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