पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४८९

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दूसरा अध्याय ४६७ ही वादवाले दो श्लोकोके जरिये सिर्फ एक शकाको दूर किया गया है जो उठ खडी हुई थी और जिसका स्वरूप हम अच्छी तरह बता चुके है। वह शका एकाएक उठ गई और मौजूं भी थी। इसीलिये अपनी बात पूरी न करके पहले उसीका उत्तर देना जरूरी हो गया। तभी तो श्रोता आगेकी उस प्रधान विषयसे सम्बन्ध रखनेवाली बाते अच्छी तरह सुन सकेगा। इसीलिये वादवाले श्लोकोके शुरूवाले शब्दके साथ ही 'तु' जुटा हुआ है। इसका अर्थ 'तो' होता है। यह वही आता है जहाँ बीचमे ही कोई दूसरी या उलटी बात प्रासगिक रूपमे खडी हो जाय और जिसका उत्तर देना जरूरी हो जाय । ऐसी वात आगे भी गीतामे “यस्त्वात्मरतिरेव" (३।१७) आदि श्लोकोमे आई है। इसलिये असली प्रसग अभी पूरा नही हुआ है यह तो मानना ही पड़ेगा। जो लोग ऐसा समझते हो कि वह प्रसग तो पहलेके उन दोई श्लोकोमे पूरा हो गया उन्हे जरा भी सोचनेपर अपनी भूल मालूम हो जायगी। देखिये न ? उन दोनोके अन्तमे यही तो कहा गया है कि बुद्धिके नष्ट होनेसे आदमी खुद भी चौपट हो जाता है-"बुद्धिनाशात्प्रणश्यति"। मगर क्या यह बात सही है ? और अगर है भी तो कैसे ? चौपट होनेका क्या अर्थ है ? अगर पत्थरमे बुद्धि नहीं है तो क्या वह चौपट हो गया ऐसा कौन मानता है ? विपरीत इसके बुद्धि न होनेसे ही तो उसे तकलीफ- आराम किसी वातका अनुभव नहीं होता। यह तो मानते ही है कि यह अनुभव ही तो ससार है, आफत है, वला है, बुरी चीज है । आनन्दका अनुभव तो होता भी शायद ही है। होता तो है अधिकतर कप्टका ही। इसलिये इस दृप्टिसे तो पत्थर अच्छा ही ठहरा । और आत्मा तो सर्वत्र है, सवोकी है यह कही चुके है । फिर पत्थर उससे जुदा कैसे माना जायगा? इसलिये चौपट होनेका मतलब क्या और क्या पागलोमे मस्ती नही होती ? उनकी समझ चली गई ? ?