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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४९४

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५०२ गीता-हृदय श्लोकोमे लिखी है तो हमे मानना ही होगा कि जो लोग गीतोक्त योगी नही होते है, मुक्त नही होते है, किन्तु उस स्थानसे गिर पडते और पतित हो जाते है-च्युत और अयुक्त हो जाते है, उन्हीमे ये बातें अक्षरश पाई जाती है । फलत उन्हें बुद्धि होती ही नहीं। फिर भावना कैसी ? भावनाके अभावमे शान्ति भी कहाँ ? और जव शान्ति ही नही, तो सुख कसा? अानन्द कहाँ ? यही बात आगेके ६६वें श्लोकमे कहनेके उपरान्त बादवाले दो लोकोमे इसीका विवरण देके उपसहार किया है। नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न युक्तस्य भावना। न चाभावयत शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥६६॥ अयुक्तको बुद्धि ही नही होती । जिसे बुद्धि ही न हो उसे भावना भी नहीं होती। जिसे भावना न हो उसे शान्ति नही मिलती। जिसे शान्ति ही नहीं उसे सुख कहाँ ? ६६। यहाँ एक जरासी बात सोचनेकी है। श्लोकके देखनेसे पता चलता है कि यहाँ कोई शृखला है जिसकी लडें एकेबाद दीगरे आई है। यदि नीचेसे ही शुरू करें तो सुखके पहले शान्ति तथा उसके पहले भावनाकी तीन लडें मिल जाती है। शुरूमें भी योगके बाद बुद्धिके आनेसे योग और बुद्धिकी भी लडे जुटती है। मगर बीचमे "न चावुद्धस्य भावना" कहनेके वजाय “न चायुक्तस्य भावना” कह दिया है, जिससे बुद्धि के साथ भावनाकी लडी जुट जानेसे आगे भावनासे शान्तिकी जुटान आदि को लेके पूरी शृखला तैयार हो जानेके बजाय टूटसी जाती है, प्रसग विशृखल हो जाता है। यह कुछ ठीक ऊँचता भी नही कि योगका बुद्धिसे और बुद्धिका ही भावनासे सीधा सम्बन्ध जोडनेके बजाय योगका ही सीर्धा सम्बन्ध दोनोसे जुटे । यह असभवसा भी लगता है । क्योकि यदि योग जुट चुका है वुद्धिके साथ, तो फिर भावनासे कैसे जुटेगा? और अगर ऐसा माने भी तो फिर शान्ति और सुखके साथ भी उसीको सीधे ?