दुसरा अध्याय ५०१ कभी भी इधर-उधर टससे मस नही होता। उसमे अव ऐसा करनेकी योग्यता एव शक्ति ही नही रह जाती है। इसीलिये निर्वात समुद्रके जलकी तरह एकरस, गभीर और शान्त रहता है। उसकी यह निश्चलता, निष्क्रियता, शान्ति अखड हो जाती है । फलत योगी उसमे लहलहाते आत्मानन्दका अनुभव दिनरात सोते-जागते करता ही रहता है। एक क्षणके लिये भी उसके सामनेसे वह आनन्द-वह मजा-अोझल हो पाता नही, हो सकता नही । मगर जो यह नही कर सकता है, जिसे भावनाका अवसर नही मिला वह हमेशा बेचैन और परीशान रहता है, अत्यन्त अशान्त रहता है। फिर उसे सुख कहाँ ? उसे सुख मयस्सर क्यो हो ? ? हमे यह भी जान लेना होगा कि इस भावनाके लिये विवेककी तो जरूरत हई । वही तो इसके मूलमे है । जबतक हमे बखूबी आत्मतत्त्वका और रागद्वेषादिका पता न चल जाय और यह न मालूम हो जाय कि इनमे कैसे फँसते है तबतक हम मनको रँगेंगे कैसे तबतक उसे सब आफतोसे खीचके आत्मा या कर्ममे ही लगायेंगे कैसे ? सभी बाते जान लेनेपर ही तो आगे कदम बढायेगे। इसीलिये भावनाके पहले बुद्धि या विवेक जरूरी है। रंगरेज रँगनेकी सारी प्रक्रिया अच्छी तरह जबतक न जाने सुन्दर रग चढायेगा कैसे ? मगर यही बुद्धि चौपट होती है जिस रीतिसे उसीका वर्णन पहले "ध्यायतो विषयान्"मे किया गया है। इसलिये वहाँ कहे गये विषयोके खयालसे लेकर स्मृति-विभ्रमतककी सारी बाते, जिनका परिणाम बुद्धि- नाश है, एक ही जगह मिलाके योगभ्रष्टता कहते है । छठे अध्यायमे जिस योगभ्रष्ट और योगभ्रष्टताकी बात कही गई है वह भी कुछ इसी तरहकी चीज है। उसमे पातजल योग भी भले ही आ जाय । मगर यह तो हई, यह वात पक्की है। यदि हम गौरसे उन सभी बातोको देखे जो इन दो
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