दूसरा अध्याय ५०६ पर फिर मोह नजदीक फटक सकता नही । अन्त समयमे भी इस दशामे आ जानेवाला (मनुष्य) निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त कर लेता है ।७२। यह श्लोक आत्मविवेक और योगके समूचे निरूपणका और इसी- लिये दूसरे अध्यायका भी उपसहार है। जिस मस्तीवाली हालतका वर्णन अभी-अभी किया है उसीका नाम यहाँ ब्राह्मी स्थिति कहा गया है। चाहे उसे योगीकी दशा कहिये, स्थितप्रज्ञ और स्थिरबुद्धिकी हालत कहिये, युक्त और मस्तकी मौज कहिये, साम्यावस्था या समदर्शन कहिये। सब एक ही बात है-एक ही चीजके अनेक नाम है। इस मस्तीमे आनेपर प्रियतम, सर्वप्रिय आत्मा या माशूकसे सपनेमे भी जुदाई होती ही नही। फिर मोह या भूलभुलैयाँ कैसी ? इसीलिये मस्तराम सदा मुक्त ही है। उसे कही आना-जाना है नही-न बैकुठ, न ब्रह्म लोक । उसका तो शरीर ही उससे अलग होता है, न कि वह किसीसे भी अलग हो सकता है । यह मस्ती यदि पहलेसे ही हो तो सोनेमें सुगन्ध ही समझिये। नही तो शरीरान्तसे पहले भी आ जानेपर निर्वाण मुक्ति धरीधराई है। निर्वाणका अर्थ है जाने-आनेसे रहित । उसकी तो आत्मा ब्रह्म रूप हई फिर आना-जाना कहाँ और कैसा? इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णा- र्जुनसम्वादे सांख्ययोगोनामद्वितीयोऽध्यायः ॥२॥ श्रीमद्भगवद्गीताके रूपमे (जो) उपनिषद रूपी ब्रह्मज्ञान प्रतिपादक योगशास्त्र (है उस) मे जो श्रीकृष्ण और अर्जुनका सम्वाद है उसका साख्य-योग नामक दूसरा अध्याय यही है ।
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