पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५०२

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तीसरा अध्याय तीसरे अध्यायका श्रीगणेग अर्जुनके प्रश्नसे ही होता है । वह प्रश्न भी कर्मके ही वारेमे किया गया है। इससे साफ हो जाता है कि दूसरे अध्यायके ३६वे श्लोकमें जिस योग या कर्मयोगके निरूपणका सूत्रपात किया गया था, वही उस अध्यायके अन्ततक होता रहा है। क्योकि बीच यदि कोई दूसरी बात खासतौरसे आनेको होती तो अर्जुनका यह प्रग्न यहाँ न होके वही हो जाता । जब कर्मके ही सम्बन्धमें यह सवाल है तय तो उसका पूरा निरूपण हो जाने और उसके मुतल्लिक सारी बातें सुन लेनेके वाद ही फौरन इसे आना चाहिये। नही तो योही हवाई वात होनेके कारण प्रधान विषयसे इसका ताल्लुक रही न जायगा । इसीलिये और बातोके निरूपणका प्रसग आते ही अर्जुन फौरन खामखा यही प्रश्न पहले ही पूछ वैठता और इस प्रकार कृष्णको मौका ही न देता कि दूसरा विपय छेड दे। क्योकि तब तो कर्मकी वात नीचे पड जाती और वह नया विपय ही ऊपर आ जाता । इसीलिये यह तो निर्विवाद है कि कर्म- योग वाली वात ही इसके पहल या यो कहिये कि दूसरे अध्यायके अन्त तक आई है। यह भी तो विदित होई चुका है कि इस कर्मयोगके निरूपणके सूत्रपातसे लेकर अन्ततक जो बाते कही गई है उनपर अध्यात्मज्ञान, तत्त्वविवेक, मनोनिरोध और मस्तीकी मुहर कदम-कदमपर लगी हुई है। मालूम होता है कि ये सभी बातें कर्मयोगके प्राणकी तरह, जीवन विन्दुकी तरह है। फलत इनके अलग करते ही कर्मयोग कुछ रही नही जायगा- वह निरा कर्म रह जायगा। क्योकि इन बातोको कर्मयोगमे अलग