तीसरा अध्याय करनेका सीधा अर्थ हो जायगा कर्मयोगसे योगको ही निकालके कर्मको उसी रूपमें छोड देना और अकेले रहने देना जिस रूपमे आमतौरसे हमेशासे पाया जाता है । कर्मके उस रूपको ही लेके गीताने अपने निराले करिश्मे और अलौकिक मतर-यतरके रूपमे उसे परिमार्जित एव शुद्ध करनेका उपाय निकाला है। गीताके इस उपायके पहलेका कर्म खाँटी लोहे या पारेके ढगका है जिसका जरा भी प्रयोग मारक बन जाता है, अनेक व्याधियो- को पैदा करता है-जन्म-मरणके चक्र एव उससे उत्पन्न सकटोका अनवरत प्रवाह जारी रखता है। गीताका उपाय उस लोहे या पारेको भस्म करके मारके-अमृत बना देता है, रस बना देता है, जिसके सेवनसे न सिर्फ व्याधियाँ दूर होती है, किन्तु अपार शक्ति मिल जाती है। इसीलिये कृष्णने इस उपायकी, इस तरकीबकी, इस हिकमत और बुद्धिकी- अक्ल और युक्तिकी-खूब ही प्रशसा की है कि इस बुद्धिरूप योगकी अपेक्षा कर्म अत्यन्त तुच्छ है-"दूरेणावरकर्म" (२।४६ ।) उसी श्लोकमे इस योग, उपाय या हिकमतको बुद्धि ही कहा भी है। उसके पहलेके "यावान उदपाने" (२।४६) में भी इस ज्ञान या बुद्धिकी प्रशसा की है और कहा है कि इसीसे सब काम चल जाता है । इसीके साथ “एषातेऽभिहिता" (२।३६) मे यह साफ ही कह दिया है कि दो मार्ग स्वतत्र रूपसे पाये जाते है-एक है साख्य या साख्ययोगका मार्ग और दूसरा है योग या कर्मयोगका मार्ग । सक्षेपमे इन्हे साख्य और योग या ज्ञान और कर्मके मार्ग भी कहते है तथा ज्ञानयोग एव कर्मयोग भी। यह भी साफ ही है कि कर्मयोगके मार्गमे भी यह ज्ञान लगा ही है । अर्जुन वहुत ज्यादा बारीकी समझ सका भी नही । उसने सीधे और साफ देख लिया कि ज्ञान या बुद्धिवाला सात्य मार्ग हर तरहसे उत्तम बताया गया है। उसके मुकाबिलेमे दूसरे या कर्मके मार्गकी कोई गिनती नही है। यदि कर्म कर्मयोग बन जाता भी है तो इस अध्यात्मज्ञानके करते
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