५१६ गीता-हृदय (इसलिये) जो (हाथ, पाव आदि) कर्म करनेवाली इन्द्रियोको (जवर्दस्ती) रोकके मनसे इन्द्रियोके विपयोको याद करता रहता है वह ढोगी कहा जाता है ।। यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन । कर्मेन्द्रिय. फर्मयोगमसक्त. स विशिष्यते ॥७॥ (विपरीत इसके) हे अर्जुन, जो तो इन्द्रियोको मनके अधीन करके कर्मेन्द्रियोंसे काम करना शुरू कर देता है (और फलादिके लिये) हाय हाय करता नही रहता वही अच्छा है १७) नियत फुर फर्म त्व कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः । शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण.॥८॥ (इसलिये) तुम अपने लिये निश्चित कर्म (जरूर) करो। क्योकि न करनेसे करना कही अच्छा है। (आखिर) कर्म सर्वथा छोड देनेपर तुम्हारी शरीर-यात्रा भी तो न चल सकेगी। यहाँपर ४से तकके श्लोकोके वारेमे कुछ जरूरी बाते जान लेनेकी है। चौथेका प्राशय यही है कि विना कर्म किये कर्मका त्याग या सन्यास असभव है और खामखा कर्म छोड देनेसे ही कुछ होता जाता नहीं । इसमे दो वाते है । एक यह कि जव कर्म करते ही नहीं तो उसे छोडनेके मानी क्या होगे ? जो चीज हमारे पास हई नही उसे त्यागना क्या ? यह तो प्रवचना मात्र है, महज झूठी बात है । इसीको "अशक्त परम साधु" या "वृद्धवेश्या तपस्विनी" कहते है। असलमें जवतक वर्णमाला पढ न ले उससे पिंड छूटता ही नही । जब कभी ग्रन्थोंके पढनेका प्रश्न उठता है तो वह वर्णमाला पहाडकी तरह सामने खडी हो जाती है कि हमे पूरा करो-पार करो। बडे ग्रन्थोंके पढनेका अर्थ है वर्णमालाके पढनका त्याग । मगर वह त्याग हो पाता नही जबतक वर्णमाला पढ ली न जाय । ठीक यही वात सन्यास या कर्म-त्यागकी है। निदिध्यासन और समाधि,
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