तीसरा अध्याय ५१७ जो आत्मविज्ञानके लिये ही नहीं, बल्कि सभी विज्ञानोके लिये अनिवार्य रूपसे आवश्यक है, बिना कर्मोके त्यागके होई नही सकते । कर्मोंका तो पँवारा ऐसा है कि चौबीस घटे उनसे फुर्सत होती ही नही । अगर यही रहे तो निदिध्यासन और समाधि कैसी ? उनका मौका ही कहाँ होगा ? इसलिये उनके करनेका अर्थ ही है कर्मोंका त्याग । मगर जबतक कर्म न करे निदिध्यासन आदिकी योग्यता होगी ही नही। फिर कर्मोके त्यागका प्रश्न ही कहाँ उठता है ? इसकी जरूरत होती है कहाँ ? और अगर इतनेपर भी खामखा त्याग किया जाय तो साफ ही कह देते है कि इससे कुछ भी होता जाता नही। यह तो ठगी और प्रवचना है। यह तो अपने आपको और ससारको भी ठगना है। इसीलिये जभी कभी वास्तविक कर्मत्याग या सन्यासकी वात उठे तो उसी समय स्पष्ट हो जाता है कि पहले कर्म करे। पीछे त्यागकी जरूरत होगी और अवश्य होगी। मगर अभी नही। दूसरी बात यह है कि खामखा योही कर्म छोड देनेसे काम बननेके बजाय बिगडता ही है। श्लोकमे जो सिद्धि शब्द है उसका यही अभिप्राय है कि कोई काम नही बनेगा, वह लक्ष्य सिद्ध नही होगा जिसके लिये कर्म- त्याग करते है। बल्कि उलटे बिगडेगा। जब खेत जोत-गोडके तैयार किया ही नही गया है और पानी-वानी देके बीज उगने योग्य बनाया गया ही नही है तो दूसरा होगा ही क्या, सिवाय इसके कि बीज और परिश्रम दोनो ही बेकार जाये ? यह तो निरी बच्चोवाली बात हो जायगी, या पागलोकीसी ही। इसीलिये इस बातपर जोर दिया गया है कि पहले तो हरेक आदमीको कर्म करना ही होगा। कर्मसे ही दरअसल प्रगतिका श्रीगणेश होता है, और सन्यास तो प्रगतिके इसी सिलसिलेकी एक आवश्यक (unavoidable) सीढी (step) है । इसीलिये इस श्लोकके पूर्वार्द्धकी उत्तरार्द्धसे मिलान करनेपर "नैष्कर्म्य"का अर्थ सन्यास ही
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