पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५१०

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तीसरा अध्याय ५१६ है। क्योकि जवर्दस्ती तो कर्म करनेके लिये खुद प्रकृति कर रही है, पदार्थोका स्वभाव ही कर रहा है, और हम चले है उसे ही रोकने । फलत हमारा यह हठ, हमारी यह जबर्दस्ती अप्राकृतिक-अस्वाभाविक- नही है, तो और है क्या ? और अस्वाभाविक चीज तो चलनेवाली नही, वह तो कभी होनेकी नही । इसीलिये दर्भ और पाखड चलता है, ठगी होती है । ऊपरसे तो देखनेके लिये कर्मेन्द्रियाँ रुकी है। मगर भीतर ही भीतर उनका काम जारी है। क्योकि ऐसे लोग मनको तो रोक सकते है नहीं। वह तो ऐसे पामरोके कब्जेके वाहर रहता ही है । उलटे यही लोग मनके कब्जेमे रहते है। उधर मनीरामने सभी इन्द्रियोकी पीठ ठोक दी है। इसलिये भीतर ही भीतर-~-छिपे रुस्तम-उनका काम जारी है। इसे ही कहते है “डूबके पानी पीना", या "खुदामियाँसे चोरी" । ज्ञानेन्द्रियोको तो यो भी ऐसे लोग नही रोकते । वे रोक सकते भी नही । उन्हीके साथ आँख दवाके कर्मेन्द्रियाँ भी मौज करती है। हमने काशीमे ग्रहणके समय एक बार घाटके ऊपर छोटेसे मन्दिरके पास एक सन्यासी बाबाको देखा कि आसन मारे मूंडी नीचे किये आँखे मूंदे बैठे है । बगलमे एक कपडा फैला पडा है कि लोग उसपर पैसे चढायेगे। हमने गौर किया तो पता लगा कि वह नीचे-नीचे रह रहके कपडे और पैसोको देखा करते है । इसे ही कहते है, "ऊपर ऊपर राम राम, नीचे नीचे सिद्ध काम इसका पता तो सपनेमे लगता है जब यह चोरी खुल जाती और जाने क्या क्या अनर्थ होते है, कौन कौनसा प्रपच फैलता है। सपनेमे तो यह चोरी छिप सकती है नहीं। इसीलिये ऐसोको पाखडी और मिथ्या- चार कहके छठे श्लोकमे दुतकारा है । यही कारण है कि सातवे श्लोकमे सबका निचोड निकालके कह दिया है कि जो लोग मिथ्याचारी और पाखडी नहीं बनना चाहते वह उनके विपरीत काम करे। वह यह कि सबसे पहले सभी इन्द्रियोपर 1 17