५२० गीता-हृदय . और खासकर ज्ञानेन्द्रियोपर तो जरूर ही, मनका नियत्रण एव अकुश रखे । असलमे मनका इन्द्रियोपर नियत्रण न रहनेसे जहाँ ज्ञानेन्द्रियाँ विषयोमे फंसानेके साथ ही कर्त्तव्य कर्मोसे विमुख करके वाहियात कामोमें लगा देती है, तहाँ कर्मेन्द्रियाँ भी ज्यादती कर बैठती है। फलत किसी , भी कामकी सीमा लाँधके उसे भी खराब कर देती है। इस तरह सब किये- करायेपर पानी फिर जाता है। इसीलिये सभीपर मनका नियत्रण जरूरी कहा गया है। उसके बाद कर्मेन्द्रियोसे सभी कर्मोंको शुरू कर दें। जरा भी आगा पीछा न करें। यहाँ जो 'कर्मयोगमारभते' कहा है उसका सीधा अर्थ यही है कि काम करना शुरू कर दे । यहाँ दूसरे अध्यायवाले कर्मयोगसे मतलव नही है। उसका तो प्रसग हई नही । यहाँ तो ऐसे लोगोकी बात है जो सबसे नीचे पडे हुए है। इस श्लोकमे 'यस्तु'में जो 'तु' है वह भी यही सूचित करता है कि इससे पहले जो कुछ कहा है उसके ही मुकाविले- में दूसरी बात यहाँ कही जा रही है । और पहले तो पतित या मिथ्या- चारीकी ही बात आई है जो दरअसल कर्म नही करता है। हठी नालायक जो ठहरा और विषय लम्पट भी। उसीके मुकाबिलेमें इस श्लोकमें यह कहना जरूरी हो गया कि उन नही करनेवाले पाखडियोकी अपेक्षा वे कही अच्छे है जो कुछ कर्म करते है और इन्द्रियोपर मनका अकुश भी रखते है। इसीलिये ऐसे आदमीको “स विशिष्यते"-"वह कही अच्छा है" कहा है। इस “विशिष्यते" क्रियाका दूसरा अर्थ हो भी नहीं सकता है । नही करनेसे करना अच्छा है-"प्रकरणात्करण श्रेय" (some- thing is better than nothing) et ata TED FET TË है। न कि पहले कहे गये पतित-पाखडीके साथ इस कर्मीकी तुलना है। ऐसा करना तो इसका भी अपमान करना हो जायगा । इसीलिये उस तुलनाका सूचक कोई 'तत' या 'तस्मात्' आदि पचमी विभक्तिवाला
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