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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५१३

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५२२ गीता-हृदय है वह भूलते है । “भूखे बगालीके भात भात"की तरह सर्वत्र एक ही बात देखना उचित नही । पूर्वापर और प्रसग भी देखना होगा, और है वह मामूली कर्म करनेवालोका ही। फिर एकाएक वह परले दर्जेकी अनासक्ति यहाँ आ धमकी कैसे ? उसकी तो यहाँ गुजाइश हई नही । यहाँ तो असक्त कहनेका केवल इतना ही प्रयोजन है कि, जैसे इससे पूर्ववाला आदमी कर्मका सोलह आना विरोधी होता है और उसे देखना नही चाहता ठीक उसके विपरीत होनेसे कही यह ऐसा न हो जाय कि दिनरात कर्मो या फलोके लिये हाय-हाय ही करता रहे। क्योकि तब तो यह कुछ करी न सकेगा। यह तो उसी हाय-हायमे इतना व्यस्त रहेगा कि इसके हाथ- पाँव ठीक-ठीक काम करी न सकेगे। इसीलिये कह दिया कि ऐसा न हो- ऐसी हाय तोबा न रहे । साधारणत फल वगैरहकी इच्छा तो रहेगी ही। क्योकि यह तो साधारण कर्मी ही ठहरा । मगर गीताके कर्मीकी गिनतीमें उसे पानेके लिये इस इच्छा-आकाक्षाको बेलगाम नही छोड देना होगा, बेहद्द परीशान होना न होगा। यही अभिप्राय है और यही युक्तिसगत भी है । गीताकी गिनती मे पानेका प्रयोजन भी है। क्योकि आगे ऐसे ही आदमीके लिये १९वें श्लोकमें परमात्माकी प्राप्ति लिखी है। वहाँ भी यही 'प्रसक्त' शब्द कर्मके साथ ही आया है । तात्पर्य यह है कि हाय- हाय छोड देनेसे अन्त करणकी स्थिरता और शान्तिके रूपमें शुद्धि होके परमात्माकी प्राप्तिका रास्तामात्र खुल जाता है। कुछ यह नही होता कि कर्मोसे ही ठेठ परमात्माको प्राप्त कर लेता है । आगे बढनेके पहले यहीपर उनने आठवें श्लोकमें स्पष्ट ही कह दिया है कि कुछ न करने और निठल्ले बैठ रहनेसे तो कुछ करना कही अच्छा है। इसीलिये तुम अपने लिये पक्का-पक्की ठहराये गये कर्मोंको जरूर ही करो। ऐसे ही कर्मोको नियत (assigned) नाम गीतामें बार- वार दिया गया है । "नियतस्य तु सन्यास" (१८७), "नियत क्रियते-