पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५१२

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तीसरा अध्याय ५२१ पद यहाँ है भी नही । आगे यह वात और भी साफ हो जाती है जब खुलके कह देते है कि नहीं करनेसे करना अच्छा है, “कर्म ज्यायो ह्यकर्मण (३८)। ऐसी दशामे ऐसा आदमी गीताका वह महान् कर्मयोग कैसे जानने गया कि उसे करेगा ? यह तो गधेको शासनकी गद्दीपर विठाने जैसी ही बात हो जायगी। यह भी तो जानना चाहिये कि यहाँ जो 'प्रारभते' क्रिया है और जिसका अर्थ है 'शुरू करता है', वह कर्मयोगमे लागू होती भी नहीं । वह तो केवल कर्ममे लागू होती है। कर्म ही या कर्मका करना ही शुरू होता है, न कि कर्मयोग । योग तो बुद्धि है यह सभी मानते है । तब उसको शुरू कैसे किया जायगा ? सो भी कर्मेन्द्रियोसे ? वह तो मार्ग है, निष्ठा है, विचारधारा है । उसका प्रारभ हर आदमी कर सकता नही । उसका आरभ बहुत पहले उसके प्रवर्तक प्राचार्यने किया था। अब प्रारभ कैसा ? यदि मान भी ले, तो हाथ-पाँव आदि कर्मेन्द्रियोसे उसका आरम्भ कैसे होगा ? यदि भारभका अर्थ है उस मार्गमे प्रवेश, तो भी वह कर्मे- न्द्रियोसे होता नहीं। वह तो मन और बुद्धिसे या अधिकसे अधिक ज्ञाने- न्द्रियोसे ही हो सकता है। इसीलिये कर्मयोगका यहाँ अर्थ है कर्मोका योग, जोडना, या करना, और इसका श्रीगणेश कर्मेन्द्रियाँ ही करती है । इसीलिये आत्मा या मनकी शुद्धिके लिये जो कर्म किया जाता है वह भी गीताके कर्मयोगमे आता नही । क्योकि उसमे तो शुद्धि रूप फलकी इच्छा हई। फिर भी उसे कर्म कहके उसके करनेवालेको भी योगी कह दिया है--“योगिन कर्म कुर्वन्ति सग त्यत्त्काऽऽत्मशुद्धये" (५।११)। "दैवमेवा- परे यज्ञ योगिन" (४।२५) मे भी योगीका अर्थ आत्मज्ञानीसे भिन्न ही है। इसका विचार वही किया है। इसीलिये यहाँ जो 'असक्त' शब्द आया है उसका अर्थ उस कर्मयोगी- की ही तरह कर्मासक्ति एव फलासक्तिका त्याग, ऐसा जो लोग करते