गीता-हृदय कुछ अर्द्धदग्ध एव अक्षरकट्ट लोग अपनी असली मनोवृत्तिको छिपाके केवल इस दलीलके आधारपर ही कर्मोंसे पिंड छुडाना चाहते है कि ये तो जन्म, मरणादि बन्धनके कारण है। फिर इन्हें क्यो करें ? उनका उत्तर यह है कि- "यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽय कर्मबन्धन । तदर्थ कर्म कौन्तेय मुक्तसग. समाचर ॥६॥ हे कौन्तेय, (जब कि) यज्ञके लिये किये गये कर्मोके अलावे वाकी कर्मोसे ही लोग बधनमे फँसते है, तो तुम आसवित या हाय-हाय छोडके यज्ञार्थ कर्मोको ही ठीक-ठीक करो ।। सहयज्ञा प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः । अनेन प्रसविण्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥१०॥ पूर्व समय-सृष्टिके आरभ काल में ब्रह्माने लोगो-प्रजा-को यज्ञके साथ ही पैदा करके कह दिया कि इस (यज्ञ) के जरिये खूब फलो फूलो और तरक्की करो (और) यह तुम्हारे लिये कामधेनुका काम दे।१०। देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेय. परमवाप्स्यथ ॥११॥ इस यज्ञके द्वारा तुम देवतायोको सन्तुष्ट करो, पुष्ट और समुन्नत करो और वे देवता तुम्हे भी वैसा ही करे। (इस तरह) परस्पर एक दूसरेको सुखी-सम्पन्न बनाते हुए परम कल्याण-मोक्ष---प्राप्त करो।११॥ इष्टान् भोगान्हि दो देवादास्यन्ते यज्ञभाविताः। तैर्दत्तानप्रदायभ्यो यै भुक्ते स्तेन एव सः ॥१२॥ क्योकि यज्ञोंके द्वारा तृप्त और प्रसन्न किये गये देवता तुम्हे सभी अभिलषित पदार्थ देंगे। इसीलिये उन्हीके दिये इन पदार्थोंको उन्हें भेंट न करके जो (स्वयमेव) हडप लेता है वह अवश्यमेव चोर है ।१२।
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