पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५१८

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तीसरा अध्याय ५२७ यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः । भुञ्जते ते त्वघ पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥१३॥ यज्ञके बाद बचे-बचाये पदार्थोको भोगनेवाले सत्पुरुष सभी पापो और बुराइयोसे छुटकारा पा जाते है। (लेकिन) वे पापी लोग तो पापको ही भोगते है जो केवल अपने ही लिये (पदार्थ) पकाते है-तैयार करते है ।१३। इस श्लोकके “यज्ञशिष्टाशिन "मे अश् धातु भोजनार्थक है। मगर जिस भुज् धातुसे भोजन शब्द बनता है उसीसे भोग भी बनता है। इसीलिये भोजन या अशनका अर्थ केवल पेटमे डालना ही नही है । मार खाने, धोका खानेमे भी तो खाना आता है। मगर ये तो पेटमे रखनेकी चीजे है नहीं। उसी प्रकार यहाँ भी समझना होगा। यज्ञके बाद जो शेष रहे उसी पदार्थको खाना पहनना या अपने निजी काममे लाना यही 'यज्ञशिष्टाशन'का अर्थ है। उसी तरह ‘पचन्ति'मे पच् धातुका अर्थ पकाना है और भात रोटी आदिके पकानेको ही आमतौरसे पकाना कहते है मगर फसल पक गई, घडा पक गया, आम पक गया, फोडा पक गयामे तो तैयार होना ही अर्थ है। महाराष्ट्रमे फसलको ही पाक कहते है। यहाँ भी तैयार करना ही अर्थ उचित है। सभी प्रकारके पदार्थोको तैयार करके पहले उन्हे यज्ञार्थ अर्पण करना चाहिये। इसका अभिप्राय यही है कि उनके कुछ अश यथाशक्ति समाजहित या परोपकारके कामोमे लगाके शेषको ही निजी काममे लाना उचित है। अन्न पकाके भगवान या देव- पितरोको अर्पण करना भी इसीमे आ जाता है । ऐसा करने के बाद जो पदार्थोको भोगता है वहीं महापुरुष यज्ञशिष्टाशी है। विपरीत इसके जो सब कुछ निजी कामोमे ही खर्च करता है वही पापी है। उसके पदार्थको दरअसल पाप ही कहा है, यद्यपि देखनेमें वह स्थूल पदार्थ प्रतीत होता है । असलमे ऐसे स्वार्थी बननेपर समाज एक