पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५२०

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तीसरा अध्याय ५२९ शान्तिपर्व (३४०।३८-६२) मे भी इस यज्ञकी बात विस्तृत रूपसे आई है । मगर गीताके यज्ञचक्रकी खूबी कही है नही । हमने इसका पूर्ण विवरण पहले ही लिखा है। अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः । यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥१४॥ कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् । तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥१५॥ अन्नसे प्राणी और सत्ताधारी पदार्थ बनते है--उत्पन्न होते है। वृष्टिसे अन्न पैदा होता है । यज्ञसे वृष्टि होती है। कर्मोसे यज्ञ बनता है--यज्ञका स्वरूप तैयार होता है। कर्म वेद (जैसे ज्ञानभडार) से ही मालूम होते है--जाने जाते है और वेद जैसा ज्ञानभडार अविनाशी (समष्टि महाभूत परमात्मा) से पैदा होता है। इसीलिये सभी बातोको अवगत कराने-जनाने वाले वेदरूपी ज्ञानभडारका तात्पर्य यज्ञ करनेमे ही है। यज्ञ ही उसका आधार भी है ।१४।१५। एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्त्तयतीह यः । अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥१६॥ (इसलिये) हे पार्थ, इस प्रकार जारी किये गये (यज्ञ)चक्रको इस दुनियामे जो (आदमी) कायम नही रखता (उसका) जीवन पापमय है, वह केवल इन्द्रियोको ही तृप्त करनेवाला है। (इसीलिये) उसका जीना बेकार है ।१६॥ यहाँ यज्ञचक्रके सिलसिलेमे इतनी सख्तीके साथ इसके चालू रखनेकी बात कही गई है कि सन्देह होने लगता है कि कही ऐसा तो नहीं है कि गीताके मतसे कर्मोका त्याग कभी होई नही सकता। जब कर्म ही ससारकी स्थिति, वृद्धि और प्रगतिके लिये कामधेनु है, जब इन्हीके द्वारा सब कुछ हो सकता है, जब यज्ञचक्रके रूपमे कर्मोका सिलसिला जारी नही रखने- ३४