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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५२१

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५३० गीता-हृदय वालेकी जिन्दगी व्यर्थ है, वह पापमय जीवन ही गुजारता है एव पामर विषयलोलुपोकी तरह एकमात्र इन्द्रियोका ही पोषक है, ऐसा स्वय गीताका आदेश है, तब तो यह खयाल होना स्वाभाविक ही है कि किसी भी दशामें कर्मोंसे जिसका ताल्लुक टूटा वह पापी और बदमाश ही माना जायगा। कमसे कम गीताका तो यही सिद्धान्त होगा-वह तो इसीपर मुहर लगा- येगी। ऐसी दशामें शुकदेव, वामदेव, जडभरत आदिकी तरह जिनके कर्म खुदबखुद पके फलकी तरह छूट गये है, गिर गये हैं और जो मस्तीकी लापर्वा-बेफिक्र—जिन्दगी गुजारते है, उनका क्या होगा ? वे भी वही "अघायुरिन्द्रियारामो मोघ पार्थ स जीवति"वाले घोर अभिशापके शिकार होगे ? होना तो चाहिये । मगर यह तो असभव, अप्राकृतिक, अस्वाभाविक तथा केवल हास्यजनक बात मालूम पडती है। वह तो इतने ऊँचे है कि उनतक यह अभिशाप कभी पहुंची नहीं सकता। यह अजीब पहेली है । यह निराली समस्या है । जो अपनी आत्मामें ही- आत्मानन्दमे ही-रम गये है, उसीमें तृप्त है और उसीमें सन्तुष्ट है, जिनकी अपनी तृप्तिसे ऐसा हो गया है कि फिर कभी दूसरी ओर जाई नही सकते-जो सदाके लिये सतुष्ट हो चुके हैं, उनके सम्बन्धमें सचमुच यह पेचीदा पहेली ही है जिसका सुलझाना असभव लगता है। मगर गीता इसको-बीचमें ही एकाएक पेश इस समस्याको-आगेके दो श्लोकोमे प्रासानीसे सुलझाके पुनरपि इस कर्मके यज्ञचक्रकी वातको ही पकडती और आगे बढती है। यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । प्रात्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते ॥१७॥ नव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन । न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥१८॥ (लेकिन) जो मनुष्य तो आत्मामे ही रम गया है, आत्मा हीमे तृप्त