पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५२३

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५३२ गीता-हृदय भूतात्मभूतात्मा" हो जाता है। तब किसका सहारा ले ? किसकी ओर नजर दौडाये ? किधर वढे, चले ? कोई दूसरा हो तब न ? यहाँ तो सब कुछ वही है-"आत्मन्येवात्मान पश्यति सर्वमात्मान पश्यति" (वृहदा० ४।४।२३), "यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत्तत्केन क पश्येत्केन क जिघ्रत् केनक विजानीयात्" (वृह० ४।५।१५)। वह तो अपने आपको ही सर्वत्र देखता है, सुनता है, पढता है, समझता है । क्योकि उसकी नजरोमे दूसरा कोई हई नही, द्वैत मिट गया, 'दुई' जाती रही, “दुई रा चू बगर करदम यकी दीदम दो आलम रा। यकी जूयम यकी बीनम यकी खानम यकी दानम ।" फिर तो बिना कुछ किये ही सब कुछ हाजिर है । शाहशाह जो ठहरा । प्रकृतिको हिम्मत कि उसकी दरवार- दारी न करे ? इसीलिये हर चीजें उसीका आश्रय लेती है, अनायास अधीन हो जाती है। महाभारतके "यदा च नाहमिच्छामि गन्धान्घ्राण- गतानपि । तदा मे सर्वदा भूमिर्वशे तिष्ठति नित्यदा" आदि कई श्लोकोमें यही दिखाया है कि सभी चीजें उसके चाहे बिना ही हाजिर रहती हैं। जो लोग उसे खिलाते-पिलाते या शरीर-सेवा करते है उनका मनोरथ और उनकी सभी जरूरतें अकस्मात् पूरी होती रहती है । तब और चाहिये ही क्या कुछ लोगोने यह कोशिश की है कि 'तस्य कार्य' आदिमें षष्ठी विभक्ति- का सम्बन्ध अर्थ लगाके यहाँ यह अभिप्राय बतायें कि उसे अपने लिये कोई कर्त्तव्य नही रह जाता है। इसीलिये जो कुछ करता है वह परोपकार और लोकसग्रहके ही लिये । मगर वह भूल जाते हैं कि "कृत्याना कर्तरि वा" (२।३१७१) और “कर्तृ कर्मणो कृति” (२।३।६५) इन पाणिनीय सूत्रोंके रहते उनका यह मतलव पूरा होनेका नहीं। यह तो कर्ताक ही अर्थमे षष्ठी बताते हैं, न कि सम्बन्धमें । एक बात और भी तो देखे कि पहले तो साधारण कर्मियोकी ही बात कही गई है, जैसा कि बता चुके ?