पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५२२

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तीसरा अध्याय है और आत्मामें ही सन्तुष्ट है उसका कुछ भी कर्त्तव्य रही नही जाता है । न तो उसके करनेसे कुछ बनता ही है और न नही करनेसे बिगडता ही। सभी भौतिक पदार्थोमे कोई भी ऐसा हई नही जिसका आश्रय वह किसी भी कामके लिये ले ।१७।१८। यहाँ अर्थ शब्द बहुत ही व्यापक अर्थमे आया है जैसा कि बातचीतमे ऐसे मौकेपर आया करता है। आमतौरसे काम, चीज या बात शब्द जिस मानीमे बोले जाते है, ठीक उसी मानीमे यह अर्थ शब्द आया है। यहाँके सभी अर्थ शब्दोका यही मतलब है। इसीलिये सीधा अर्थ यही हो जाता है कि उसके करने-न करनेसे न तो कुछ बनता-बिगडता है और न दुनियाकी कोई भी ऐसी चीज रही जाती है जिसकी प्राप्तिकी कोशिश करनेकी उसे जरूरत हो। फिर उसके लिये कर्म करना जरूरी होगा क्यो ? आखिर कर्मोकी जरूरत होती है अपने या दूसरोके किसी मतलबके ही लिये न ? मगर जिसके कर्मोंसे किसीका कोई भी मतलब सिद्ध होनेवाला होई न, वह क्योकर, उन्हे करे ? हॉ, यदि न करनेसे कुछ भी विगडने वाला हो, किसीका भी बिगडनेवाला हो, तो भी एक बात है। मगर यहाँ तो वह बात भी नही है। सबसे बडी बात, सब वातोकी एक बात यह है कि राईसे लेकर पर्वततक या चीटीसे लेकर भगवानतकसे कोई न कोई काम निकालनेके ही लिये क्रिया या कर्मकी जरूरत पड़ती है। मगर मस्तरामके लिये तो यह भी बात नही है। उनके कर्मों के फलस्वरूप किसीसे भी कोई काम सधने-बननेका हई नही श्लोकमे “कश्चिदर्थव्यपाश्रय” आया है। उसका खास महत्त्व और मतलब है। किसी भी कामके लिये हमे तो किसी न किसी छोटे- बडे पदार्थका आश्रय-सहारा-लेना ही होता है। मगर मस्तरामके लिये ऐसा कोई पदार्थ रही नहीं जाता। उसके लिये तो सभी अपनी आत्मा ही है-आत्मासे जुदा कोई हेई नही । कही चुके है कि वह “सर्व- 1