५३४ गीता-हृदय करके भी (तो) तुम्हें कर्म करना ही होगा-करना ही चाहिये ।२०। यहां जो लोग यह मानते है कि जनकादिको कर्मसे ही मोक्ष मिला, वह एक तो यह भूल जाते है कि मोक्ष ज्ञानसे ही मिलता है। यह बात हम बहुत ही खूबीके साथ बता चुके है। उनने भी दूसरी जगह यही माना है । यदि मान भी ले कि कर्मसे भी मुक्ति होती है, तो भी यह तो वे भी नही मानते कि निरे कर्मसे मुक्ति होती है। वे तो ज्यादेसे ज्यादा यही मानते है कि ज्ञान और कर्म दोनोंके समुच्चयसे-दोनोकी सम्मिलित शक्तिसे-ही मोक्ष मिलता है । मगर यहाँ तो 'कर्मणा एव' लिखा है, जिसका अर्थ है सिर्फ कर्मसे । यह कैसे होगा ? इसीलिये यहाँ कर्मणा इस तृतीयाको “कर्तृकरणयोस्तृतीया" (प०२।३।१८) के अनुसार साधन वाचक न मानके 'विनाऽपि तद्योग तृतीया'के अनुसार 'सह' शब्दके न रहने- पर भी उसका अर्थ प्रतीत होनेपर ही तृतीया हो जाती है, यही मानना उचित है । हम इसीलिये, कर्मके साथ ही रहे, वरावर कर्म करते ही रहे, उसे कभी न छोडा यही अर्थ किया भी है । सबसे मार्केकी बात यहाँ, यह है कि इससे पहले के श्लोकमें 'तस्मात् कहके एक वातका उपसहार कर लिया है, ऐसा स्पष्ट है। इसलिये इस श्लोकमें कोई दूसरी नई बात शुरू होके आगे चल रही है, ऐसा प्रतीत होता है। इसीलिये इस श्लोकके पूर्वार्द्धकी मिलान उत्तरार्द्धके साथ करनेसे और उसीके अनुसार आगे बढनेसे सब बात ठीक हो जायगी। नही तो यह पूर्वार्द्ध योही वीचमें ही लटका रह जायगा। क्योकि उत्तरार्द्धका तो साफ ही आगेसे सम्बन्ध मानना होगा। जिस लोकसग्रहका इसमें उल्लेख सूत्र रूपसे है उसीका भाष्य आगेके पूरे छे श्लोक करते हैं। जनकको लोकसग्रह करनेवाला और पथदर्शक कर्मयोगी मानते भी है। इसलिये उत्तरार्द्धके साथ मिलाके हमने जो अर्थ किया है वही यहाँपर उचित और ठीक है।
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५२५
दिखावट