तीसरा अध्याय ५३५ जनः। यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥२१॥ बड़े लोग जो जो करते है वही वही काम जनसाधारण भी करते है । बडे जितना करते और जिसे सही मानते लोग भी उतना ही करते और उसीको सही मानते है ।२१॥ यहाँ 'प्रमाण'का अर्थ प्रमाण या सही भी है और नापजोख भी। 'यत्प्रमाण' शब्द जब समस्त माना जाय तब तो इसका अर्थ है 'जितना' । और अगर यत् तथा प्रमाण अलग-अलग दो शब्द स्वतत्र माने जायँ तब 'जिसे सही' यह मानी है। न मे पार्थास्ति कर्त्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन । नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त्त एव च कर्मणि ॥२२॥ हे पार्थ, तीनो लोक-सारे ससारमे-मेरा कुछ भी कर्त्तव्य रह नही गया है । ऐसा भी नही कि कोई वस्तु मुझे हासिल न हो (और) उसे प्रान्त करना हो। फिर भी (देखो न) कर्ममे लगा ही रहता हूँ।२२। यदि ह्यहं न वतयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः । मम वानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥२३॥ क्योकि हे पार्थ, अगर मै (खुद) कभी भी आलस्यरहित होके कर्म करनेसे हिचकूँ तो सभी लोग मेरा ही रास्ता (चट) अखतियार कर लेगे ।२३। इस सम्बन्धमे यह याद रखना होगा कि श्रीकृष्णकी रासलीला का इस कथन से स्पष्ट विरोध होने के कारण वह प्रक्षिप्त तथा पीछे जोडी गई चीज है । शिशुपालसे बढकर कृष्णका शत्रु कोई न था जो खुले आम गालीगलौज करता और उनके सच्चे- झूठे ऐबोंके बारेमे लेक्चर देता फिरता था। युधिष्ठिरके यज्ञमे जब कृष्णकी पूजाकी गई तो उसे बर्दाश्त न हो सकी । फलत. उसने बहुत कुछ
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