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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५३६

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तीसरा अध्याय ५४५ पाँच (२६-३०) श्लोकोके अर्थपर दृष्टि देना पडेगा । यह जाननेमे कुछ दिक्कत नही है कि इस श्लोकका असली स्थान “मयि सर्वाणि" (३।३०) के बाद ही है । क्योकि बीचके दो श्लोक योही प्रासगिक है। कही लोग ऐसा न समझ ले कि कृष्ण किसी प्रकार अर्जुनको युद्धमे प्रवृत्त करनेके ही लिये सारा प्रपच रच रहे और आडम्बर फैला रहे है, इसीलिये "ये मे मतमिद" आदि दो (३१, ३२) श्लोकोमे यह कह दिया गया है कि यह सर्वोपयोगी ध्रुवसिद्धान्त है जो सबोके लिये समान रूपसे लागू है । अत जोई इसके अनुसार चले या चलनेकी कोशिश ईमानदारीसे करे उन्हीका कल्याण हो जायगा । विपरीत इसके जो ऐसा न करेगे वे चौपट भी जरूर हो जायँगे । फलत इन दो श्लोकोका कोई सैद्धान्तिक महत्त्व नही है । ये योही उठी शका या खामखयालीको दूर कर देते है। इसीलिये बीचमे इनके आ जानेपर भी इनके बादके ३३वे श्लोकका सम्बन्ध इनके पहलेके ३०वेके साथ ही रहता है। अब जरा पीछेवाले उन पाँचोके अर्थोपर गौर करे। उनमे यही कहा गया है कि नासमझ एव सीधे-सादे लोगोके सामने ज्ञान कथना न सिर्फ बेकार है, बल्कि खतरनाक भी है। क्योकि वे दुबिधेमे पड जाते है। उनकी बुद्धि ऐसे घपलेमे आ जाती है कि वे न तो घरके रहते और न घाटके । इतना ही नहीं। यदि समझदार और बडे-बूढे लोग कर्म न करे तो वह भी देखा-देखी वैसा ही करते है । फलत चौपट हो जाते है। ज्ञानियो और बडे-बूढोकी भीतरी बाते वे क्या जानने गये ? वे तो ऊपरसे कर्मोका त्याग देखके खुद भी वैसा ही कर बैठे-कर बैठते है। इसीलिये ज्ञानियोंके कर्मत्यागमे यह बड़ा खतरा है। इसीसे कृष्णने इसे रोका है और कहा है कि परमात्मामे ही कर्मोको छोडके ज्ञानी लोग उन्हे करते चले । वे तो यह समझते ही है कि कर्म तो गुणोमे है, प्रकृतिके भीतर है, हममे तो है नही, हम तो उनसे बेलाग है।