५४६ गीता-हृदय ज्ञानी जनोंके इसी खयालके साथ कि, हममें तो कर्म है नहीं, किन्तु गुणोमे ही है, यदि यह खयाल भी आ मिले, जो पीछेके सत्रहवें श्लोकमें आ गया है, कि मस्तरामको कुछ भी करना-धरना रह नही जाता, फल- स्वरूप वे लोग-आमतौरसे यदि यही मान बैठे कि जव कर्मोका ताल्लुक हमसे हई नही तो फिर हम करें ही क्यो? जब "गुणागुणेषु वर्तन्ते" ही है तो फिर हम नाहक माथापच्ची क्यो करें? परीशानी क्यो उठायें ? तो क्या होगा? नासमझ लोग तो प्रकृतिके गुणोके बारेमें निरे कोरे है, कुछ भी नही जानते,। इसलिये वे भले ही कर्मोंमें चिपटे । उनके लिये कर्म ठीक भी है। मगर हम ज्ञानीजन उनमें क्यो मरे-पिचे ? हमें तो अपनी बात पहले देखनी है, पीछे दूसरोकी, यदि यह खयाल पक्का हो जाय तो.कर्म छूटी जायेंगे। कमसे कम कोंके लिये एक भारी खतरा तो खडा होई जायगा और सारा उपदेश बेकार जायगा। बस, इसीका उत्तर आगेके श्लोक देते है। ये श्लोक तीन बाते कहते है। श्लोक भी तीन ही है। इसीलिये क्रमश तीनोकी एक एक बातें है । पहला-~-३३वां--तो इतना ही कहता है कि मस्तरामको देखके दूसरे ज्ञानी कैसे हाथ-पांव रोक देंगे, यदि वे चाहें भी ? प्रकृतिके गुणोकी जो बात उनके बारे में कही जाती है उसकी आधी ही वात क्यो ली जाय और पूरी क्यो नही ? एक तो मस्तरामकी प्रकृति निराली और शेष ज्ञानी जनोकी दूसरी ठहरी । प्रकृतिके मानी तो यहाँ शरीर, इन्द्रिय, अन्त करणादि होगे न ? प्रकृतिका कोई दूसरा रूप तो होगा नही, जब हर आदमीके प्रति उसका विचार किया जायगा । ऐसी दशामे मस्तरामके मन आदि दूसरे और शेष जनोंके निराले ही ठहरे। और अगर मस्तरामके मन आदि कर्मोंसे हट भी जाये या कर्म ही पके फलकी तरह उनसे हट जायें, तो इसका दूसरेके मन, इन्द्रियादिसे क्या सम्बन्ध ? दूसरेके मन, इन्द्रिय आदि क्यो हटेंगे ? वे तो दूसरे हैं और
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