पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तीसरा अध्याय धूमेनानियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च । यथोल्वेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥३८॥ जैसे धूएँसे आग छिपी रहती है, जिस तरह मैलमे आईना छिपा होता है, (या) जिस प्रकार गर्भकी झिल्लीमे वच्च छिपा रहता है, उसी तरह उस कामने इस (ज्ञान) को छिपा दिया है ।३।। श्रावृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यं रिणा। कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरणानलेन च ॥३९॥ ज्ञानियोके सदाके इस शत्रुने, जिसे काम कहते है, जो कभी पूरा होता ही नहीं और जिसका अन्त भी नहीं होता था जो आगकी तरह भीतर ही भीतर जलाता रहता है, जानको छिपा रखा है ।३६। इन्द्रियाणि मनो वुद्धिरस्याधि'ठानमुच्यते । एतविमोहयत्येष ज्ञानमावृतम् देहिनम् ॥४०॥ इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि (यही तीन) इसके अड्डे है । इन्हीके द्वारा ज्ञान या भले-बुरेके विवेकपर पर्दा डालके यह काम आत्माको भटका देता है--किंकर्तव्यविमूढ कर देता है ।४०।। तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादी नियम्य भरतर्षभ । पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥४१॥ इसलिये हे भरतश्रेष्ठ, पहले तुम इन्द्रियोको ही नियत्रणमे लाके ज्ञान और विज्ञानको चौपट करनेवाले इस बदमाशको जडसे जरूर खत्म करो।४१॥ इन्द्रियाणि पराण्याहुति न्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिर बुद्धः परतस्तु सः ॥४२॥ (और पदार्थोकी अपेक्षा) "न्द्रियां ऊँची या वडी है, इन्द्रियोसे भी वडा मन है, मनसे ऊपर वुद्धि है और जो बुद्धिके भी ऊपर है वही वह (आत्मा है) ।४२॥