पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५४१

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गीता-हृदय अर्जुन उवाच अथ केन प्रयुक्तोऽय पापं चरति पूरुषः । अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥३६॥ अर्जुनने पूछा-हे वार्ष्णेय, भला (बताइये तो सही कि) हजार न चाहनेपर भी यह मनुष्य बुरा कर्म किसके दबावसे-क्यो-कर डालता है ? मालूम पडता है, जैसे किसीने जबर्दस्ती करवाया हो । ३६। इसीलिये दुर्योधनके बारेमे कहा जाता है कि उसने कहा था कि, यह जानते हुए भी कि पाडवोका हक देना उचित है, मैं दे नही सकता। साथ ही, द्रौपदी आदिके साथवाले दुर्व्यवहारको बुरा समझते हुए भी मै उससे बाज नही आ सकता। मालूम पडता है, कोई बड़ी भारी शक्ति भीतर बैठी जबर्दस्ती करवा रही है-"जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्य- धर्म न च मे निवृत्ति । केनापि देवेन हृदिस्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि" । क्या चोर नहीं समझता कि चोरी बुरी है ? क्या व्यभिचारी नहीं समझता कि यह काम खराब है ? फिर भी सभी वही करते ही है । प्रश्न होता है कि नही चाहते हुए भी करनेका रहस्य क्या ? श्रीभगवानुवाच काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव । महाशनो महापाप्मा विद्धय॑नमिह वैरिणम् ॥३७॥ श्रीभगवानने उत्तर दिया-यह काम-राग-है और यही क्रोध- द्वेष-भी है। इसकी उत्पत्ति रजोगुणसे होती है। इसका पेट कभी भरता ही नही । यह पुराना पापी है। इस दुनियामें इसीको वरी - समझो ।३७)