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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५४५

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५५४ गीता-हृदय खिचेगा। कोचवानके ही हाथमें लगाम होती है न ? और मन है लगाम और बुद्धि कोचवान । फिर तो इन्द्रियाँ भी खिंच गई और बाहरी पदार्थोंमे न जाके आत्मामे ही लग गई। तब काम महाराज रहेंगे कहाँ ? कुछ समय इन्तजार करके हमेशाके लिये उन्हें आत्महत्या करनी पड़ती है जब पूर्ण निराश हो जाते है । फलत ज्ञान और विज्ञानका ही बोलबाला रहता है। इन दोनोका अर्थ बताया जा चुका है। इन्द्रिय और मन आदिको जो एक दूसरेके ऊपर कहा है यही वात जरा विषय, महान् और अव्यक्तको जोडके कठोपनिषदमें भी दो बार यो आई है, "इन्द्रियेभ्य परा ह्या ह्यर्थेभ्यश्च पर मन । मनसस्तु परा- बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्पर ।१०। महत परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुष पर । पुरुषान्नपर किञ्चित्सा काष्ठा सा परागति" १११ (११३), तथा “इन्द्रियेभ्यः पर मनो मनस सत्त्वमुत्तम् । सत्त्वादधिमहानात्मामह तोऽव्यक्तमुत्तमम् ।७। अव्यक्तात्तु पर पुरुषो व्यापकोऽलिंगएव । यज्ज्ञात्वामुच्यते जन्तुरमृतत्त्व च गच्छति" ।। (२।६) । यहाँ सत्त्वका अर्थ है बुद्धि और महान आत्माका अर्थ है महत् या महत्तत्त्व । अव्यक्त नाम है प्रकृतिका । क्रम तो यही है। मगर गीताको इस विस्तारसे कोई काम नहीं है। वह तो बुद्धिको ही प्रात्मामें लगाके मन और इन्द्रियोको अपनी ही ओर खीच लेना और इस तरह काम, राग या अभिलाषाको मार डालना चाहती है। उसने यही बताया भी है। आखिरी श्लोकमे जो दुरासद शब्द है उसका अर्थ है बड़ी कठिनाईसे पकडा जानेवाला । असलमे इस राग या कामके इतने स्थूल, सूक्ष्म और विभिन्न रूप है कि जल्द उनका पता लगना असभव है । कामकी हालत भी यह है कि धोका देके फंसा लेता है और पता ही नहीं चलता है कि फंस गये है। भक्ति और उपासनाके नामपर जाने कितने ही प्रपच रचे जाते है जो पतनके ही मार्ग है। मगर पता ही नही लगता और लोग