पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५४७

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चौथा अध्याय अवतक कृष्णने जो उपदेश अर्जुनको दिया है उससे उसकी आँखोका पर्दा हट गया और उसे नई दुनिया दीख पड़ी। उसने तो कुछ दूसरा ही समझ रखा था। लेकिन इन दो अध्यायोंके उपदेशोंके वाद पाया कुछ और ही। दूसरे अध्यायके उपदेशोके उपरान्त अर्जुनके दिमागकी सफाई हो पाई न थी। क्योकि उसके सामने तो असली मसला था युद्धका । यो तो सारे कर्मोकी ही समस्या उसे सुलझानी थी। कारण, उसकी तर्क-दलीलने इनके पुराने आधारो और दुर्गोको ही ध्वस कर दिया था। धर्मशास्त्रीय विधान उसके सामने लापता थे--पस्त थे। तो भी उसका असली सकट था मरने-मारनेवाला यह जघन्य कृत्य जिसे युद्ध कहते है। सामने तत्काल वही था भी। उसीको लेके उसे इतना बडा विराग भी हुआ था और स्वतत्र बुद्धिसे उसने सारे विधानोको तौलके उन्हें कच्चा तथा नाकाफी ठहराया था। इसीलिये तीसरे अध्यायके शुरूमें ही उसने अपना मनोभाव साफ व्यक्त कर दिया था कि, खैर एक तो कर्म ही बुरे और तुच्छ है । फिर उनमें भी यह घोर कर्म ! मुझे इसमें फंसानेका क्या काम है यदि ज्ञान ही श्रेष्ठ है, यह उसने साफ कह दिया था । अबतक ज्ञान मार्गकी खूबियाँ वह जान सका था जरूर । मगर कर्मोकी पेचेदगी उसे विदित हो सकी न थी। यह समस्या अभी उलझी हुई थी। मगर कृष्णने तीसरे अध्यायमे जो कुछ भी कहा उससे सारी बातें आईनेकी तरह झलक उठी। अब उसके मनमें शक-शुभेकी जरा भी गुजा- इश रही नही गई थी। अगर कहे तो कह सकते है कि एक प्रकारसे गीताका