५६८ गीता-हृदय और शक्ति दबी न होके व्यापक होती है । पूर्वके ६,७ श्लोकोमें जो प्रात्मा शब्द वारवार आया है उसका भी यही अभिप्राय है कि आखिर मै तो प्रात्मा ही ठहरा । इसीलिये जो मुझे आत्मा माने-जानेगा वह तो मेरा रूप हई, होई जायगा। ये यथा मां प्रपद्यन्ते तास्तथैव भजाम्यहम् । मम वानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥११॥ हे पार्थ, जो लोग जिस दृष्टिसे मेरे निकट पाते है-मुझे जानते- मानते है मैं (भी) उन्हे वैसा ही मानता-जानता हूँ। (यह ममझ लो कि) सभी मनुष्य मेरे ही रास्ते पर चलते है ।११॥ कांक्षन्तः फर्मणां सिद्धि यजन्त इह देवताः । क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥१२॥ इस ससारमे जो कर्मोकी सिद्धि चाहते है वह (सभी प्रकारके) देव- तारोका यज्ञपूजन करते है । क्योकि इस मनुष्य लोकमे कर्मोके फलोको प्राप्ति जल्दी ही होती है ।१२। (इन दो श्लोकोमे जो वात कही गई है वह है तो गीताकी अपनी खास चीज ही। इसका बहुत विस्तृत निरूपण भी हमने श्रद्धापूर्वक बाँक विचारके समय किया है । मगर इसका ताल्लुक पहलेके लोकसे भी है । गीताका यह एक मुख्य मन्तव्य है कि जोई दिल-दिमागमे आये ईमानदारीके साथ वही जवानसे वोले और हाथ-पांवसे करे तो कल्याण ही वन्वाण समझिये । यही स्वधर्म-पालनका वास्तविक अर्थ है और यही बात इन दो ग्लोकोमें भी कही गई है। पहले ग्लोकने मिलान करनेपर यह अभि- प्राय स्पप्ट हो जाता है कि जिनको वह दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जाती है, जिन अात्मसाक्षात्कार कहते है, वह तो ब्रह्मरूप ही होते, ब्रह्मत्वको प्राप्न । जाते है "ब्रह्मव नन्ब्रह्माप्येति" (बृहदा० ४।४।६) । नविन जिनपी वह दृष्टि न हो वह अनेक प्रकार होते है। कोई तो ईश्वरको प्रागपदय
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