चौथा अध्याय 11 मानके पूजा-यज्ञ करते, कोई इन्द्र-उपेन्द्रादिके रूपमे उसे पूजते मानते कोई और भी देवी-देवताकी ही सूरतमें उसे याद करते और सतुष्ट करना चाहते, कोई पितरोके रूपमें ही उसको तृप्त करते और कोई भूत प्रेतादि मानकर ही मत्रतत्रादिसे उसे अनुकूल करना चाहते है। इसी दृष्टिकी विभिन्नताके अनुकूल उनके उद्देश्य भी अलग-अलग होते है। यही बात “कामैस्तैस्तै आदि (७।२०-२३) और "यजन्तेसात्त्विका" (१७।४) मे भी कही गई है। इस प्रकार भगवानको आत्मा समझनेपर जब मनुष्य भगवानका रूप बन जाता है तो अन्य देवता, देवी आदि जिस किसी रूपमे भगवानको मनुष्य समझे-मानेगा वह वही होगा, इसमे शककी जगह हई कहाँ ? बेशक ईमानदारीका सवाल है। दिलसे ऐसा ही मानके काम करनेवालोकी ही बात है । श्रद्धाका यही मतलब है। आमतौरसे ऐसी पूजा करनेवाले सचमुच श्रद्धा और विश्वासके साथ ही ऐसा करते है। जो लोग मनमे समझे कुछ और करे कुछ वे ऐसे शायद ही होते है । वे लोग इन पूजापाठके झमेलोमे पडते भी नही । इसीलिये यह कहना भी ठीक ही है कि सभी मनुष्य मेरे ही रास्ते पर चलते है । क्योकि नियम यही है। अपवादमे ही शायद कोई ऐसा न करते हो । भगवान तो सभीकी आत्मा ठहरे । वैसा ही अनुभव वह करते भी थे जब बोल रहे थे। इसीलिये जव मनुष्य किसी भी देव दानवकी पूजा करेगा तो जरूर ही भगवानकी ही ओर जायेगा। उसका रास्ता वही होगा जो भगवानका है जो उसकी ओर ले जाता है । यह ठीक है कि वह सीधा राजमार्ग न होके पगदडी और टेढा-मेढा रास्ता है, जो चक्कर काटके जाता है । इसीलिये तो महिम्नस्तोत्रमे पुष्पदन्तने साफ ही कह दिया है कि चाहे किसीकी पूजा करे या किसीको जाने-माने; मगर घूम-न -फिरके सभी भगवानकी ही तरफ जाते है । जैसे वर्षा या बर्फका सभी पानी घूम फिरके समुद्रमे ही जाता है,-"रुचीना वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषाम्, नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।"
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