गीता-हृदय भी हठ खतरनाक है। हठ किमी और नहीं होना चाहिये । इसका स्पष्टीकरण अभी हुना जाता है। हां, तो अब जरा देखें कि इन चारो सतरोफी रोक चोकर की गई है। ४७वे श्लोकके दूसरे हिस्मेको म यो पाते है, "माफलेषु कदाचन"- "कर्मोके फलोमे तो हमारा अधिकार कभी नहीं है।" ग तन्ह वृत्तमे पांव देने के बाद जो आगेवाला सतरा है परिधिके बाहर और जिने हमने तीसरा कहा है उसे रोक दिया। कर्मके साथ फलका ताल्लुक स्वभावत होता ही है। इसलिये कर्मके वाद चटपट उत्तीसे रोपना उचित समझा गया। इसके बाद ४७वके शेष-उत्तरार्द्ध-में वृत्तके पहलेवाले दो मत- रोसे रोका है "मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते मगोऽस्त्वकर्मणि"-"कर्मके फनके कारण मत बनो, अर्थात् कर्मफलका सयाल करके काम हगिज गुन् न करो।" फलके लिये सकल्प और चिन्तनके जरिये ही तो फलतक पहुंचते है । अव यदि वह सकल्प या चिन्तन रहा ही नहीं, फलका पयाल हई नहीं तो "रहा चांस न बाजी वांसुरी"वाली बात हो गई और फलमे स्वयमेव ताल्लुक बंधा ही नहीं। यही कारण है कि पहले फलको वात रोकके उसके कारण- स्वरूप फलेच्छा या फल सकल्पकी बात पीछे रोकी गई है। क्योकि फलकी इच्या या सकल्प होनेपर तो फलतक पहुँचना की नहीं सकता। इसपर सहसा यह कहा जा सकता है कि तो फिर कर्म करेंगे ही क्यो? जब न तो फलकी पर्वा है और फलका नकल्प ही है, तो कर्मको बलामे नाहक फैमा क्यो जाय ? इसीका उत्तर श्लोकका प्रापिरी हिस्मा "मा ते सगोऽस्त्वकर्मणि" देता है कि खवरदार, अकर्म (कर्म छोडने) मे आस- क्ति या हठ हर्गिज होने न पाये । कर्मका न किया जाना एक चीज है और उसमें न करने या छोडनेमे-हठ विलकुल दूसरी ही चीज है। ऐसा हो सकता है कि समय पाके खुदवखुद कर्म छुट जाय । परिस्थिति ऐमी हो जाय कि हजार चाहनेपर भी कर्म छोडनेके अलावे दूसरा चारा होई न ।
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