पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५७

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गीताका योग ३६ इसलिये अपने आप या मजबूरन कर्म छूट जाय । गीता यह बात मानती है और इसका विरोध उसे इष्ट नही। मगर कर्मके छोडनेका हठ हर्गिज उसे बर्दाश्त नहीं। हम कर्म कभी करेगे ही नही चाहे जो भी हो जाय, यही चीज गीताको पसन्द नही। कर्मके मार्गमे यही उसकी नजरोमे तीसरा खतरा है और वह लोगोको इसीसे सजग करती है। लेकिन चौथे खतरेका सामना हो जा सकता है । वृत्तके बाहर परिधिके इधर-उधरके उक्त तीनो खतरोसे बचनेपर भी चौथा खतरा उसके भीतर ही-दायरेके अन्दर ही हो सकता है। वह है कर्मके करनेका हठ या आसक्ति । इसीको कर्ममे सग, कर्मका सग, कर्मसग या कर्मासग भी कहते है। जैसे सक्ति और आसक्तिका अर्थ एक ही है चिपक जाना या सट जाना और जिसे अग्रेजीमें अटैचमेन्ट (attachment) कहते है; ठीक उसी प्रकार सग और पासगका भी यही अर्थ है । दोनो शब्दोमे "आ"के जुट जानेसे चिपकने या लिपटनेमे सिर्फ अन्धापन या हठ (जिद्द) जुट जाता है और इसे "ब्लाइड अटैचमेन्ट' (blind attachment) कह सकते है । मगर 'आ'के न रहनेपर भी यही अर्थ होता है । गीताके मतसे जैसी ही बुरी अकर्म (कर्मत्याग) की जिद्द है वैसी ही कर्मकी जिद्द भी। आसक्ति या हठ दोनोका ही बुरा है । इसी हठको "ऊँटकी पकड़" कहते है। ऊँट किसी चीजको एक बार पकडनेपर छोडता ही नहीं। बन्दरियाकी आसक्ति या अन्धप्रीति अपने बच्चेके साथ होती है । फलत. बच्चेके मर जानेपर भी उसे नही छोडती। किन्तु छातीसे लिपटाये फिरती है जबतक कि वह खुद टुकडे-टुकडे होके गिर नही पडता है । यह चीज बुरी है और यही रोकी गई है । हजार कोशिश और दृढ संकल्प (determination) के बाद भी कभी-कभी परिस्थितिवश कर्मका छट जाना अनिवार्य हो जाता है। परिस्थितियाँ किसीके वशकी