पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५६२

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चौथा अध्याय ५७१ अपने कर्मोका फल क्यो भोगे और वह न भोगे? नियम-कायदा तो एक ही ढग का होगा न ? होना चाहिये न ? इन्ही वातोका उत्तर आगे लिखा है। उसका मतलब यही है कि सृष्टिमे अनेक प्रकारके कामोका बँटवारा गुणोके ही अनुसार बने स्वभावके ही अनुकूल हुआ है। जिसके दिल-दिमाग, शरीर और इन्द्रियोमे जिस गुणकी प्रधानता है उसीके अनुसार उसके कर्म होते है । ऐसी गुण विभिन्नता होने ही क्यो पाई, इसका उत्तर भी यही है कि पहले जन्मके कर्मोके अनुसार ही सभी बाते होती है। जो जिस चीजका अभ्यास करेगा उसे वही याद आयेगी और उधर ही वह झुकेगा। इसीलिये कहा गया है कि मरनेके समय उससे पहलेके अभ्यासके अनुसार जो वात, जो चीज याद आयेगी उसी शरीरमे उसीके अनुकूलवाली परिस्थितिमे जन्म लेगा। इस तरह आगे बढते जायँगे। शुरूमे क्यो ऐसा हुआ यह प्रश्न तो होता ही नही; क्योकि ससारका शुरू न मानके इसे अनादि मानते है। यह ठीक है कि कर्मो और गुणोकी सारी व्यवस्था भगवानके बिना नही हो सकती है। इसीलिये वही यह सव कुछ करते है । मगर न तो इसका फल ही वे भोगते और न इनसे परीशानी ही उठाते | क्योकि उन्हे तो आत्मज्ञान है न ? वह तो अपनेको अकर्ता और अभोक्ता-बेलाग--देखते है न? श्लोकमे जो चातुर्वर्ण्य या चारो वर्णों की बात है वह दृष्टान्तके रूपमे भारतमे उस समय प्रचलित चीजको ही खयाल करके है। असलमे कर्मोंके अनेक विभागो और उनकी व्यवस्थासे ही मतलब है। श्लोकमे कर्म शब्द पूर्वके या प्रारब्ध कर्म और आगे होनेवाले कर्म-इन दोनो-का ही वाचक है। इसका पूरा विवरण कर्मवादमे मिलेगा। चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः । तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम् ॥१३॥ चारो वर्णोको मैने ही गुणो और कर्मोके बँटवारेके अनुकूल ही बनाया