पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५६३

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५७२ गीता-हृदय है । (लेकिन) इनका बनानेवाला होता हुआ भी में निर्विकार और अकर्ता हूँ, ऐसा जान लो ।१३। नमा कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा । इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥१४॥ (क्योकि) न तो मुझमे कर्म चिपकते ही है और न मुझे उन कर्मोक फलोकी आकाक्षा ही है। (फिर मुझे इनसे ताल्लुक ही क्या ? यही नही,) जो कोई दूसरा भी मुझे इसी तरह साक्षात्कार कर लेता है वह भी कर्मोसे (हर्गिज) बंध नहीं सकता ।१४। यहाँ उत्तरार्द्धमे जो 'अभिजानाति' क्रिया है उसका पहलेकी ही तरह साक्षात्कार ही अर्थ है । इसीलिये तत्त्वकी जगह 'अभि' शब्द उसमें जुटा है, जिससे उसका अर्थ होता है अच्छी तरह जानना। इसीको विज्ञान भी कहते है। अभिजानातिके ही अर्थमे अभिज्ञान बनता है, जिसका अर्थ है पहचान या परिचय करा देनेवाला । शकुन्तलावाली अंगूठी देखते ही दुष्यन्तकी आँखो के सामने उसकी मूर्ति नाच उठी। इसीलिये अभि- ज्ञान शाकुतलमें उसी अंगूठीको अभिज्ञान माना गया है। जो लोग ईश्वरके अकर्तृत्व और नि स्पृहत्वका अपने ही भीतर साक्षात्कार करने लगे, अनुभव करने लगे, वह तो स्वय ईश्वर ही हो गये। फिर उन्हें कर्मोका वन्धन कैसा? एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः । कुरु कर्मैव तस्मात्त्व पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥१५॥ (यही कारण है कि) मुक्ति चाहनेवाले पुराने लोगोने भी ऐसा ही समझके कर्म किया था। इसलिये तुम भी पुराने लोगोके द्वारा किये गये इस अत्यन्त प्राचीन कर्मको ही करो ।१५। इस श्लोकमे 'मुमुक्षुभि' के साथ 'अपि'को जोडके यह अर्थ किया है कि मुमुक्षु या मुक्ति चाहनेवाले लोगोने भी कर्म किया था। इसका