चौथा अध्याय ५७५ वारीकसे भी वारीक बाते देख सके । वेदोमे “कविर्मनीषी परिभू स्वयम्भू' गब्दोमे परमात्माको कवि कहा है। असलमे चौथे अध्यायका निजी विषय यहीसे शुरू होता है । कि फर्म किमकति कवयोऽप्यत्र मोहिताः। तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥१६॥ कर्म क्या है (और) अकर्म क्या है इस सम्बन्धमे अलौकिक विद्वानोको भी घपलेमे पड जाना पड़ा है। इसीलिये तुम्हे कर्म (की सारी बाते और बारीकियाँ) बतादूंगा जिन्हे जानकर गलती और बुराईसे बच सकोगे ।१६। कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः । अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥१७॥ कर्मके सम्बन्धमे भी बहुत कुछ जानना जरूरी है और विकर्मके सम्बन्धमे भी। (इसी तरह) अकर्म-कर्म त्याग-के सम्बन्धमे भी अनेक बाते जाननेकी है। क्योकि कर्मकी बात बडी पेचीदा है ।१७। कर्मण्यकर्म यः पश्यदकर्मणि च कर्म यः । स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥१८॥ जो आदमी कर्ममे ही अकर्म -कर्म त्याग और विकर्म-(भी) देखता है और अकर्म-कर्म त्याग एव विकर्म-मे ही कर्म (भी), वही सब लोगोमे बुद्धिमान है और योगी है और वही सब कुछ कर सकता है ।१८। यहाँ कई बाते विचारणीय है। सबसे पहली बात तो यही है कि सीधे ढगसे यह हर्गिज नही मान लेना चाहिये कर्ममे वरावर अकर्म ही देन्वना चाहिये या अकर्ममे कर्म ही। आपातत देखनेसे तो यही प्रतीत होता है कि यहाँ पालकारिक विरोधाभासके रूपमे ही गीताके सिद्धान्तका वर्णन है । इसलिये विरुद्ध या उल्टी ही बाते देखनेका सिद्धान्त इसमे होना चाहिये ऐसा ही मालूम होता है। मगर गीता तो अलकारका ग्रन्थ है नहीं। यह तो हमारे प्रतिदिनके व्यवहारो, हलचलो, सघर्षों एव कर्मोके
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