पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५६७

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५७६ गीता-हृदय करने-न करनेके दार्शनिक सिद्धान्त बताके तत्सम्बन्धी कायदे-कानूनका सग्रह (Manual) जैसा ग्रथ है। इसीलिये जो बातें बराबर होती है और जिन्हे व्यावहारिक या अमली वाते कहते हैं उन्हें मिटा देने या भुला देनेसे तो गीताका काम चल सकता नही । तब तो यह कीचडमे ही जा फँसेगी और इसका मूल्य भी न रह जायगा। तब गीता वह चमकता हीरा न रह जायगी जैसा मानी जाती है । इस दृष्टिसे देखने पर इस श्लोकका अर्थ ऐसा हो जाता है कि जो आदमी कर्ममें कर्म तो देखता ही है, या यो कहिये कि कर्मको कर्म तो जानता- मानता हई; लेकिन उसमें अकर्म यानी कर्मका त्याग और विकर्म भी समझता है। इसी तरह जो अकर्म यानी कर्मके त्यागमें भी कर्मका त्याग तो समझता ही है , मगर कर्म और विकर्म या विरोधी कर्म-निन्दित कर्म-भी देखता है। ऐसे ही जो अकर्म यानी विकर्म या निषिद्ध कर्मको भी विकर्म तो मानता ही है। मगर उसे कर्म-त्याग और कर्म भी जानता है। वह सबोमें बुद्धिमान है, वही युक्त या योगी है और वह वेधडक कोई भी-सभी-कर्म कर सकता है, करता है। उसे कोई काम करनेमें खतरा तो नजर आता नही। फिर हिचक क्यो होगी? इस तरह आत्मज्ञानी या योगीकी दृष्टि या नजरको कर्मके बारेमें वहुत ही व्यापक बन जानेकी बात इस श्लोकमें कही गई है। निचोड यही है कि वह हमेशा यही मानता है कि कोई भी कर्म, जिसे व्यवहार, समाज या शास्त्रने अनुमोदित किया है, कर्म भी हो सकता है, कर्म-त्याग भी और विकर्म, दुष्कर्म या पाप भी। इसी तरह वह यह भी मानता है कि शास्त्रीय या समाज-अनुमोदित कर्मोका त्याग भी त्याग तो रहता ही है। साथ ही साथ वह कर्म और विकर्म भी वन सकता है और विकर्म भी विकर्म होनेके साथ ही कर्म या कर्म-त्याग हो जाता है, हो जा सकता है । मालूम होता है, कोई जादूमतर या करामात है जो इनके रूपोको बदल देती है अगर उसका प्रयोग किया जाय और