चौथा अध्याय ५७९ तथा धर्म मजबूर हो गये और दूसरी जीविका मिली ही नही। ऐसी दशामे केवल जीविकाके खयालसे ही वही विकर्म या हिंसाका काम करनेपर भी वही उनके लिये कर्म या सत्कर्म हो जायगा। मनुस्मृतिके १२वे अध्यायमे लिखा है कि विश्वामित्रादि ऋषियोने कुत्ते आदिका मास खा-खिलाके घोर दुष्कालमे प्राण बचाये। छान्दोग्य उपनिषद (१।१०।१-७) मे लिखा है कि हाथीके जूठे उडद खाके उपस्ति ऋपिने प्राणो और धर्म दोनोकी ही रक्षा की । इसलिये ऐसा तो होता ही रहता है । हमने जो कुछ लिखा है वह अक्लमे आनेवाली चीज है । व्यवहारमे भी ऐसा होता आया है, होता है और होता रहेगा भी। इसीलिये गीताके इस श्लोकका भी अर्थ ऐसा ही करना उचित है जो व्यवहारके अनुकूल हो। यह मान लेना कि कर्मको हमेशा अकर्म ही समझते और देखते रहे, निरी नादानी है। वैसी मनोवृत्ति जबतक न हो यह कैसे हो सकता है और यह मनोवृत्ति केवल योगीके वशकी नही है। माना कि उसने खुद ऐसी ही मनोवृत्ति की और वह असग भी है । मगर कर्मोका ताल्लुक तो आखिर दूसरोसे भी होता है न ? और अगर वे ऐसा न समझे तो भी क्या उनके लिये भी वह अकर्म ही हो जायगा? यह उलटी बात होगी। एक ही कर्म किसीके लिये सत्कर्म, किसीके लिये दुष्कर्म और किसीके लिये अकर्म या कर्मत्याग हो सकता है अपनी अपनी भावनाके अनुसार । यही वात हरेक कर्ममे निरपवाद लागू है । पूजा-पाठ, समाधि तकम हिंसा तो होती ही है । और नही तो सॉस लेने या शरीरकी रगडसे ही जाने लक्ष-लक्ष कीटाणु खत्म हो जाते हैं। इसीलिये अष्टावक्रने अपनी गीतामे कहा है कि नादानकी निवृत्ति या कर्मत्याग भी प्रवृत्ति या कर्म बन जाता है और विवेकीकी प्रवृत्ति भी निवृत्ति बन जाती है, “निवृत्तिरपि मूढस्य प्रवृत्तिरुपजायते । प्रवृत्तिरपि धीरस्य निवृत्तिफलभागिनी” (१८॥ ६१) । इसमे 'भी'के अर्थमे जो 'अपि' शब्द है वही हमारे आगयको
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