पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५७८ गीता-हृदय है। यदि हम जानबूझके उसकी मददको न जायें तो यही कर्म त्याग होगा या विकर्म या पाप । यदि चाहते हुए और भरसक यत्न करने पर भी न जा सके, क्योकि किसीने हमे कसके पकड लिया या बाँध दिया हो, तो कर्मका त्याग या प्रकर्म होते हुए भी यही हो गया हमारा कर्म, जिसे अच्छा काम, सत्कर्म या पुण्य कहिये । मगर ऐसा भी हो सकता है कि हम ऐन मौके पर इधर समाधिस्थ हो गये और उधर वह पीटपाट शुरू हुई। हमने सारी तैयारी पहलेसे ऐसी कर ली थी कि रुकना कथमपि सभव न था । या ऐसा भी हो सकता है कि हममे आत्मानन्दकी ऐसी मस्ती हो कि सुध-बुध होई न । ऐसी दशामें उसकी मददके लिये हमारा न जाना सचमुच कर्म-त्याग है। अब रही विकर्मकी बात । साधारणत हिंसा बुरी है, विकर्म है। फिर भी लोग इसे बरावर करते ही रहते है। इसीलिये वह विकर्मका विकर्म ही रहेगी जब तक हम रोजी-रोजगार, पेट या महज वैरविरोध श्रादिके खयालसे यह चीज करते रहेगे। मगर आखिर धर्म-व्याघ भी तो कसाईका ही काम करता था। हालत यह थी कि एक तो कोशिश करके थक चुका था, फिर भी उससे उसका पिंड छूट न सका । दूसरे उसके करने या न करनेमे-होने या न होनेमे--और उसके परिणाम स्वरूप पैसे मिलें या न मिलें, या और कुछ हो या न हो, उसे किसी बात की जरा भी पर्वा न थी-उसे अव्वल दर्जेकी बेफिक्री थी, मस्ती थी। इसीलिये यह विकर्म उसके लिये अकर्म या कर्मोका सच्चा त्याग था। ऐसा हर समझ- दार, हर आत्मज्ञानी कर सकता है, करता है। लेकिन मान लें कि वही धर्म-व्याध या दूसरे ही इतनी दूर तक न पहुँचे हो । जीविकार्थ उन्हें कुछ न कुछ खामखा करना भी पडे। इसीके साथ कसाईका काम उनका खान्दानी पेशा होनेके कारण-जैसी कि धर्मव्याधकी बात थी-उन्हें सुलभ होनेपर भी इससे बचनेकी सारी कोशिश उनने कर ली। मगर