पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चौथा अध्याय ५८९ समग्र या जडमूलसे खत्म हो जानेकी बात है। मगर दोनोका आशय एक ही है । हाँ, एक अन्तर जरूर है और है वह महत्त्वपूर्ण । यहाँ "ज्ञाना- वस्थितचेतस" कहनेसे बुद्धिका ज्ञानमे या आत्मचिन्तनमे डूबना लिखा है । उसके आगे जो "ब्रह्मार्पण" (४।२४) श्लोक है उससे भी यही सिद्ध होता है। इसमे तो कर्मको समाधिका रूपान्तर बना दिया है और कह भी दिया है। जब ब्रह्मके सिवाय और कोई खयाल हई नही तो समाधि तो पूरी होई गई। मगर जैसा कि वही कह चुके है, तीसरे अध्यायमे यह बात नहीं है। वहाँ जनसाधारणकी बात ही आई है, हाय-हाय छोडके कर्म करनेकी जरूरत उन्हें बताई गई है और उन्ही कर्मोंसे यज्ञके स्वरूपका निर्माण कहा गया है। इस तरह एक पहेलीसी खडी हो जाती है । मगर इसका समाधान भी है। असलमे तीसरे अध्यायकी स्थितिसे आगेतककी स्थितिको ही दृष्टिमे रखके चौथे अध्यायमे कर्म, अकर्म और यज्ञका निरूपण पाया है। यह तो ठीक ही है कि पूर्ण ज्ञानीके कर्मोकी बात यहां बार-बार आई है । मगर ३०वेंके “यज्ञक्षपितकल्मषा" और पूरे ३१वे श्लोकसे ही सिद्ध हो जाता है कि पूर्ण ज्ञानीसे नीचे दर्जेके लोगोके लिये भी यज्ञकी बात यहाँ कही गई है। क्योकि ज्ञानीको पापसे ताल्लुक ही क्या उसका पाप तो ज्ञान ही जला देता है । वही कर्मको भी जलाता है। साथ ही, यज्ञशेष अमृतका भोग करनेवाले सनातन ब्रह्मको प्राप्त होते है, इस कथनसे भी पता चलता है कि ऐसा करते-करते जब उनका अन्त करण निर्मल हो जाता है तभी पूर्ण ज्ञानके द्वारा ब्रह्मको प्राप्त करते है । क्योकि ज्ञानी तो ब्रह्मरूप हई। फिर खा-पीके ब्रह्मको क्या खाक प्राप्त करेगा ? मुमुक्षुओके भी कर्म करनेकी बात इसी अध्यायमे पहले कही गई भी है। "तत्स्वय योग- ससिद्ध" (४।३८) से भी पता लगता है कि कर्मसे अन्त करणकी शुद्धिरूपी ससिद्धि मिलनेपर ही ज्ञान प्राप्त होता है। क्योकि वहाँ 'योगससिद्ध' ?