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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५८१

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५६० गीता-हृदय शब्दका सिवाय इसके दूसरा अर्थ नभव नहीं कि "कोक करनेसे जिसका अन्त करण गुद्ध हो गया है"। उमके पागे "योगमन्यस्तकर्माण ज्ञान- मच्छिन्ननगयम्” (४१४१)से भी स्पष्ट है कि कर्म करते-करते अन्त करण- की पविनता हो जानेपर ही कर्मीफा म्वर पत मन्यास करना जरूरी हा जाता है, ताकि निदिध्यासन और समाधि यथोचित रीतिमे हो मक और पूर्ण प्रात्मसाक्षात्कार हो जाये । जबतक कर्म न करे तवतक उसरा मन्यास असभव है, यह तो "नकर्मणामनारम्भात्" (३।४)में कही चुके है । इसलिये यहां यह कहना कि "योग यानी कर्म करके ही जिसने कर्मोका सन्यास किया है"ठीक ही है। इसीलिये यही बात "पाररुक्षोर्मुन " (12) मे तथा "सन्यासस्तु महाबाहो" (५६) में भी कही गई है। हम इसपर विशेष प्रकाश भी डाल चुके है । यही कारण है कि "ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि" (४।३७) और "ज्ञानाग्निदग्धफर्माण" (४१६)के साथ इस "तत्स्वय योगमसिद्ध "को मिला देनेपर "सर्व कर्मामिल पार्य" (४१३३) में "परि- ममाप्यते"के पर्यवसानके दोनो ही अयं करने जरूरी हो जाते है । एक तो यह कि सभी कमॉका फल दरअसल ज्ञान ही है। दूसरा यह कि ज्ञानके बाद सभी कर्म जडमूलसे खत्म हो जाते है । "ममग्न प्रविलीयते" और "सर्व कर्माखिल परिसमाप्यते"का बहुत सुन्दर मेल भी है, यदि शब्दोंके अर्थोपर गौर करें। इतना ही नहीं। यदि यनोंके स्वस्पोको भी देखें तो पता चलता है कि पात्मज्ञानीके मिवाय दूसरोके भी यज्ञ उनमे पाये है। "ब्रह्मार्पण" आदि श्लोकमे ठीक आत्मज्ञानीका ही यज्ञ है। मगर उसके बाद जो देवयज्ञ श्रादिका वर्णन है वह तो निश्चय ही यात्मज्ञानियोके यज्ञका नहीं है। वह भला देवताओका यज्ञ क्यो करने लगे ? उनकी नजरोमें देव- दानव वगैरह तो हई नहीं। यज्ञ भी स्वतत्र कोई चीज नहीं है। शेप चौदह यज्ञोका भी यही हाल है । "ब्रह्माग्नावपरे यज्ञ"मे भी ब्रह्मरूपमें