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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५८३

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५६२ गीता-हृदय उपदेश है । “यत्करोषि" (६।२७-२८) में जिस प्रकार सभी त्रिन्यानोमें भगवानकी पूजा या भेंटकी भावनाका उपदेश किया गया है, ठीक वही वात यहाँ है । भगवानकी भेटकी ओर स्वभावत लोगोका खयाल जा सकता है । इसलिये वह एक आसान उपाय है। मगर जो लोग भगवानको नही मानते या उतनी दूर नहीं जा सकते क्योकि यह भावना आसान नही है उन्हें यज्ञकी भावनाके द्वारा तैयार करनेका यह रास्ता है। आखिर यज्ञ, सैक्रिफाइस (Sacrifice) या कुर्वानी तो सभी धर्म- मजहबोकी चीज है। समाजहितकी दृष्टिसे तो धर्म न माननेवालोंके लिये भी मान्य है। इसीलिये इस सुगम और व्यापक मार्गका उपदेश यहां किया है। इसका परिणाम यह होगा कि पदार्थोंको भोगते भी अलग-अलग खाना, सोना आदि बुद्धि या भावना न करके सर्वत्र यज्ञकी ही बुद्धि करते रहनेसे मनकी एकाग्रता हो जायगी। फिर तो उसे यजसे मोडके आत्मामे लगाना अगला ही कदम होगा। "यथाभिमतध्यानाहा" (योग० ११३६) में पतजलिने यही माना है। यही सबसे आसान मार्ग है भी। इसीलिये "कर्मजान्विद्धितान्सर्वानेव ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे में जो कहा है कि इन यज्ञोको कर्मोसे ही होनेवाले माननेसे ही मुक्ति या कर्मोसे छुटकारा होगा, उसका भी अभिप्राय स्पष्ट हो जाता है। यज्ञोको कर्मजन्य जाननेसे छुटकारेका मतलब यही है कि अलग-अलग कर्मोकी भावना तो रही ही नही। अब तो सभी कर्म यज्ञ बन गये। फिर तो करनेवाले का यह खयाल होगा ही नहीं कि हम खाते-पीते है, खेती करते है आदि-आदि । किन्तु वह तो बरावर यही समझता रहेगा कि यज्ञ हो रहा है। इस तरह कर्मकी स्वतत्रता खत्म हो गई। वे वन गये यज्ञ और यज वननेका फल अभी बताई गई एकाग्रता ही है। हमने जब यह जान लिया कि कोई और काम तो होता नही कि उमके भले-बुरे फल होगे। यहां तो केवल