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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५८२

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चौथा अध्याय ५९१ देही आत्माका चिन्तन चलता है। इसीलिये वह यज्ञ भी आत्मज्ञानके पहलेकी चीज है । इसी प्रकार ज्ञानयज्ञ भी बडा व्यापक है । इसीलिये गीताके अन्त (१८७०) मे गीताके पढने-पढानेको भी ज्ञानयज्ञ कह दिया है। फलत ज्ञानयज्ञ आत्मज्ञानको ही कहते है यह तो माना जा सकता नही । जव "ब्रह्मार्पण' आदि आत्मज्ञानरूपी यज्ञसे पृथक् ही ज्ञानयज्ञ गिनाया है तो वह जरूर ही दूसरे ही प्रकारका है । वात असल यह है कि यज्ञमे किसी न किसी पदार्थकी आहुति अग्नि आदिमे दी जाती है। इसी समानताके खयालसे जहाँ एक पदार्थको दूसरेके पास लाके खत्म किया वही यज्ञ नाम दे दिया गया है। आहुतिके बाद उसके पदार्थ खत्म तो होई जाते है । विषयोमे जानेपर इन्द्रियोकी परीशानी जाती रहती है। मालूम पडता है कि वह खत्म हो गईं। इन्द्रियोके पास आके विषय तो खत्म होते ही है । ब्रह्मके रूपमे आत्माका चिन्तन करनेसे उसका देहयुक्त रूप तो खत्म होई जाता है। मनके रोकनेसे इन्द्रियोकी और प्राणकी भी क्रियाये खत्म होई जाती है । पूरकमे प्राणकी क्रिया होती नही । क्योकि वायु वाहर जाये तव न ? वहाँ तो भीतर ही खीचा जाता है और वही है अपानकी क्रिया । रेचकमे वायु वाहर ही निकालते है। इसीलिये वहाँ अपानकी ही क्रिया गायव है। कुम्भकमे दोनोकी ही क्रिया रुक जाती है। यद्यपि प्राणायाम तीनोको ही मिलाके या अलग-अलग भी कहते है । मगर पूरक-रेचकको जुदा गिना देनेके बाद प्राणायामके मानी है केवल कुम्भक । इसी प्रकार सभी यज्ञोके वारेमे जानना होगा। "सर्वेऽप्येते यज्ञविद" (४१३०) मे विदका अर्थ ज्ञान नही, किन्तु लाभ है। अत यज्ञविद का अर्थ है यज्ञ करनेवाले। यहाँ प्रात्मज्ञानके सिवाय दूसरे यज्ञोके वर्णन करनेका आशय यही है कि जिनकी मनोवृत्ति वहुत ऊँची नही उठ सकी है वह भी धीरे-धीरे उस दगामे पहुँच जाये । इसीलिये सभी क्रियायोमे यनकी भावनाका