सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५६४ गीता-हृदय गई और विकर्मको ही अकर्म बन जानेकी भी। ३६वेमे भी विकर्मको हो अकर्म वना दिया है। क्योकि वृजिन या पापका प्रश्न तो विकर्ममे ही होता है, सुकर्म या कर्म-त्यागमें नही। यह ठीक है कि यहां समस्त वृजिन कहनेसे जब पापका समुद्र लेगे--सभी पाप लेगे--तो सचित और पुराने पाप भी आई जायेंगे। मगर इससे क्या? यह तो और भी सुन्दर हुआ कि भूत और भविष्य कालके विकर्म भी अकर्म बन गये और इस सिद्धान्तकी व्यापकता हो गई। इसी तरह ३७वें श्लोकमें ईधनोका दृष्टान्त देकर कर्म समूहके जला देनेकी जो बात कही गई है उससे भी यह सिद्ध हो जाता है कि ज्ञानसे न सिर्फ वर्तमान कर्म अकर्म बन जाते है । किन्तु भूत और भावी कर्म भी, और इस तरह कर्मके अकर्म बन जानेका भी सिद्धान्त व्यापक बन जाता है। रह गई अकर्म या विकर्मके कर्म वन जानेकी वात । सो तो वही मोटी है । इसमे ज्यादा कहनेकी जरूरत है नही । “कर्मेन्द्रियाणि सयम्य" (३।६-७) आदि श्लोकोमे ही यह बात साफ-साफ कह भी दी गई है। उससे बढके सफाईके साथ और क्या कहा जा सकता है ? इसी प्रकार कर्ममे विकर्म या विकर्ममे कर्मकी भी बात है । वह धर्मशास्त्रोमें भी पाई जाती है और जानकी अपेक्षा नहीं करती। असलमें आत्मज्ञानके फल- स्वरूप जो परिवर्तन कर्म या अकर्ममे होता है, उसीका निरूपण यहाँ है, न कि और कोई। जो चीजें परिस्थितिके ही करते बदल जाती है, न कि ज्ञान- के करते, उनका ताल्लुक दरअसल गीतासे है नहीं। इसीलिये गीताने या तो तीसरे अध्यायकी तरह प्रसगवश उनके वारेमें कुछ कह दिया है या छोट दिया है। क्योकि उनकी वखूवी जानकारी स्मृतियोंसे और अन्य- अथोंसे भी हो सकती है । कर्मयोगका मूलाधार यात्मनान होनेके कारण और इस अध्यायमे ज्ञानका प्रसग होनेके कारण भी ज्ञानसे होनेवाली कर्म-अकर्मको बाते ही वहाँ कही गई है।