चौथा अध्याय सिर्फ ३४वे श्लोककी एक वात रह जाती है। ज्ञानकी प्राप्तिके लिये तत्त्वदर्शी गुरुके पास जाके पहले तो उसके सामने नम्रतापूर्वक आत्म- समर्पण करना होगा। उसके बाद यथाशक्ति सेवा करना जरूरी है। जब नम्रता और सेवासे गुरु महाराज सतुष्ट दीखे तभी मौका पाके आत्मा- परमात्माके वारेमे प्रश्न करना उचित है। यही गीताने माना है । अर्जुन- ने यही किया भी था । ऐसा नही कि चट पहुंचे और पट प्रश्न ही कर दिया। फिर सूखे काठकी तरह तने पडे रहे । जो आत्मज्ञानी और मस्त होगा वह इस पर कभी आँख भी न फेरेगा। प्रश्नका उत्तर देना और समझाना- बुझाना तो दूर रहा । किसी मस्तसे, जो बडे-बडे मिट्टीके ढेलोके बीच पडा रहता था, जब किसी महाराजाने तर्स खाके पूछा कि कहिये कैसी कटती है तो उसने चट उत्तर दिया कि कुछ देर तो तेरी जैसी और कुछ देर तुझसे अच्छी | राजाने समझा था कि ढेलोमे कष्ट होता होगा । मगर यहाँ तो उलटी बात सुननेको मिली ! असलमे नीदके समय तो ढेला, काँटा या पलगका पता नहीं रहता। इसीलिये सभीकी बरावर कटती है । हाँ, जगने पर मस्त तो मस्त ही झूमते है । मगर राजे-महा- राजे हजार चिन्तामे मरते है। यही वजह है कि मस्तरामकी उस समय अच्छी कटती है। फिर वे किसीकी पर्वा क्यो करने लगे ? "यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोह" (४१३५) श्लोक महत्त्वपूर्ण है । आत्मज्ञान- की वात यो तो पहले भी वारवार २,३,४ अध्यायोमे आई है। उसके प्राप्त होने पर आत्मज्ञानी योगी या मस्तरामकी क्या दशा होती है यह बात भी कितनी ही वार कितनेही ढगसे कही गई है। मगर अभी तक यह कही नहीं बताया गया कि उस ज्ञानका रूप कैसा होता है । यह एक बुनियादी और मौलिक वात है जो अब तक छूटी है । ज्ञानका एक यह जवर्दस्त पहलू है जिस पर प्रकाश पडना जरूरी था । यह बात इसी श्लोकमे पहले- पहल आई है। यही कारण है कि इस अध्यायके अन्तमे जो समाप्ति-
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५८६
दिखावट