गीताका योग ४१ फल और उसके सकल्पके त्यागका भी असली प्रयोजन यही है कि दिल- दिमागकी गभीरता और समता-एकरसता (balance)-न बिगडे । इन चारो खतरोसे बचनेका निचोड इसी सिद्धि, प्रसिद्धिकी समतामे ही पा जाता है। इसीलिये इसे ही योग कहा है । फलकी तरफ खयाल होने या फलका सकल्प होनेपर कुछ भी गडबड होते ही हायतोबा मचती ही है। इसीलिये उससे बचना जरूरी है । ऐसा भी होता है कि काम पूरा होने तथा विजय मिलनेपर खुशीके मारे मनुष्य आपेसे बाहर हो जाता है और ऐसा न होने या पराजय होनेपर रजके मारे ही आपेसे बाहर या बेसुध हो जाता है। दोनो ही हालतोमे दिल-दिमागकी समता खत्म हो जाती है। फलत. ऐसा करना चाहिये कि दोनोमें एकका भी मौका ही आने न पाये। इसीलिये तो आसक्तिका त्याग जरूरी बताया गया है। पूरे ४८वे श्लोकमे यही बात खूब सफाईके साथ कही गई है। न रजके मारे छाती पीटनेका और न खुशीके मारे बेहोश होनेका ही मौका इसीके चलते आने पायेगा। यही योग है। इसमे सबसे बडी खूबी यह है कि जब कर्म करनेवालेका मन इधर-उधर कही भी जरा भी न जाके सिर्फ काममे ही लग जायगा-वही केन्द्रीभूत (concentrated)--हो जायगा, तो वह काम होगा भी ठोक-ठीक । किसी भी कामकी पूर्णताके लिये दिल और दिमागका उसमे लग जाना, उसीमे जाके अड जाना और लिपट जाना-उससे बाहर न जाना- बुनियादी और मौलिक कारण है। फिर तो वह सिद्ध और पूर्ण होके ही रहेगा। अधूरेपनकी गुजाइश उसमे रहेगी ही नहीं। दिल और दिमागमे बडी ताकत है । जिसे इच्छाशक्ति (will-power) कहते है वह यही चीज है । योगियो और सिद्धोके जो अद्भुत काम कहे गये है और उनकी सिद्धियोका जो वर्णन मिलता है उसका रहस्य यही है । और जब मनके- दिल और दिमागके-कही इधर-उधर जानेकी गुजाइश रखी ही नही
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