पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४० गीता-हृदय . जो नहीं होती है। फिर हठ या जिद्द गयो ? न करने की जिद्द हो और न तो न करनेकी ही। जिद्द ही नो बला। दृढ मकल्प और श्राम पिन या हटमें फर्क दोनो दो चीजें हैं। दृढ सकल्पका तो इतनाही मतलब है कि विघ्न वावायोमे गादापि विचलित न होके कर्म करते रहे-चट्टानाही तरह अटल रहे। मगर ननेपर भी कर्म छूट जा सकता है । यह जन्री नहीं कि हम उमे कन्ने ही रह । परि- स्थितियाँ हम मजबूर कर दे सकती है। फलत दृढ मकन्पके होने हुए भी इस तरह कर्मके छूट जानेपर हमें काप्ट न होगा। क्योकि हमारा तो यही रास्ता है और होना चाहिये कि "पायो विपत्तियां तुम, दु गोको साथ लाग्यो । पीढूँगा तुम्हीको, तुमने ही या पिढूंगा।" मगर यदि कर्ममे प्रामक्ति या करनेकी जिद्द रही, तो हमे गर्मान्तिक वेदना ऐनी दशामे जरूर हो जायगी और गारा मजा ही किरकिग हो जायगा। ठीक इसी तरह कर्मके त्यागके हजार हठ कन्नं पर भी उने करनेकी मजबूरी कभी-कभी हो सकती है और हठ होनेने हम उस दशामे तिलमिला जा सकते है। यही बात गीता रोकना चाहती है । इमीलिये कर्मके करने या न करने कर्म या मन्याम दोनो ही में ग्रामवित, जिद्द या हठको उसने खतरा करार दिया है और कहा है कि कर्म चाहे पूरा हो या अधूरा ही रह जाय या चाहे हम उमे शुरू ही न कर पाये-हर हाल- तमे हमारे दिल-दिमागकी ममता या गभीरता (balance of mind) विगडना नही चाहिये । हमें दोनो ही हालतोमे, पूरा होने, न होने- कर्मकी सिद्धि और असिद्धि-में सम रहना चाहिये-एकरन (uncon- cerned) रहना चाहिये, जैसा कि जनकने मिथिलापुरीमे पाग लगनेपर कहा था कि मिथिला जलती है तो जले, मेरा क्या जलता है ? -"मिथि- लाया प्रदरवाया न मे किञ्चन दह्यते ।" यही है योग। इसी योगको प्राप्त करके, कावूम करके-योगस्थ होके-हमे कर्म करना चाहिये । - .