पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५९६

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पाँचवाँ अध्याय ६०५ श्रीभगवानुवाच सन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ । तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥२॥ श्रीभगवानने उत्तर दिया--(बेशक), कर्मोका सन्यास और उनका करना (ये दोनो ही) परम कल्याण-मोक्ष के देनेवाले है। लेकिन इनमे सन्याससे योग-कर्मोका करना ही अच्छा है ।२। ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न कांक्षति । निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥३॥ हे महावाहु, उसीको सदा सन्यासी मानना चाहिये जिसे न राग है, न द्वेष--जो न कुछ हटाना चाहता है, न कुछ लेना। क्योकि जो (इस प्रकार) राग-द्वेषादि द्वन्द्वोसे रहित है वही आसानीसे बन्धनोसे छुटकारा पा जाता है ।३। साख्ययोगी पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पंडिताः। एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोविन्दते फलम् ॥४॥ सास्य -सन्यास (और) योगको-दोनोको-दो चीजे ना समझ लोग (ही) मानते है । (क्योकि) यदि एक पर भी अच्छी तरह कायम रहे तो दोनोका फल मिली जाता है ।४। यत्सांख्यः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते । एक साख्य च योग च यः पश्यति स पश्यति ॥५॥ जो स्थान सन्याससे मिलता है वही योगसे भी। (इसलिये इस तरह) सन्याम तथा योगको जो एक ही समझता है (दरअसल) वही समझदार है । संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः। योगयुक्तो सुनिब्रह्म न चिरेणाधिगच्छति ॥६॥