गीता-हृदय ६०६ हे महावाहु, विना योगके सन्यासकी सिद्धि-प्राप्ति-असभव है। (विपरीत इसके) जो योगयुक्त है अर्थात् कर्म करता है उसे सन्यास- की प्राप्ति शीघ्र ही होती है ।६। आगे वढनेके पहले इन पाँच श्लोकोके सम्बन्धमे कुछ बातें क देना जरूरी है । एक तो यह कि दूसरे श्लोकमे जो कुछ कहा गया है उस प्राशय वही है जो उससे पहले हमने अर्जुनके प्रश्नके अभिप्रायके विवेचनके सिलसिलेमे आखिरमे कह दिया है। कर्मके खतरोको ध्यानमे रखके ही उस पर जोर देना कृष्ण जरूरी समझते है। उनके जानते वास्तविक मन्यासमें कोई सतरा है नही और कच्चे सन्यासको रोकनेके लिये कों पर ही जोर देना जरूरी हो जाता है । मगर सर्व साधारणके सामने हर बात इतनी सफाईके साथ कही तो जा सकती नही। क्योकि सब लोग इसे समझ पाते नही और भटक जाते है। इसीलिये यही वाते दूसरे तरीकेसे कही जाती है जिन्हे वेदवाद या अर्थवादका तरीका गीताने भी माना है और पुराने लोगोने भी। कृष्णने भी यही तरीका यहां अपनाया है। असलमें सन्यासकी सीढी कर्मोके वाद आनेके कारण ऊंची तो हुई। उसकी जवाबदेही भी वडी है। इसीलिये शास्त्रोने उसकी प्रशसा काफी की है। मगर दिक्कत यह होती है कि जन-साधारण प्रशमाके कारणो और रहस्योको न समझ सकनेके कारण उसके बाहरी स्प पर ही लट्ट होके उसी ओर झुक पडते है । फलत कर्मोसे हटनेका खतरा बगवर रहता है। इसीलिये तीसरे ग्लोकमे यह दिखाया गया है कि अमली मन्यामी वही है जो रागद्वेष एव काम-क्रोवसे शून्य हो, जिसमें वैर-विगेत्र आदि होई नहीं। उसे ही मुक्ति मिलती नी है। अब यदि यही काम- क्रोधादिका त्याग कर्म करनेवालेमे आ जाय तो उसके तो दोनो ही हाथमें लड्डू है । वह योगीका योगी-कर्मी-जो ठहरा ही। माथ ही, यदि देखा जाय तो नन्यामी भी हो गया और इस तरह उसने मुक्निका गम्ना
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