पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५९८

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पांचवां अध्याय ६०७ साफ कर लिया। इससे फायदा यह होता है कि एक तो पाखड और मिथ्याचारके रूपमे सन्यासको प्रश्रय नहीं मिलता। दूसरे जन-साधारण उससे हिचक जाते और सोचने लगते है कि तब तो कर्म ही अच्छा है। क्योकि हम कामक्रोधादिसे शून्य तो हो सकते नही और इसमे ऐसा होना जरूरी भी नही है, जब कि सन्यासमे नितान्त आवश्यक है। इसलिये प्राइये, कर्म ही करे, और यथासभव कामक्रोधादिको भी रोके, ताकि आगेका भी रास्ता धीरे-धीरे साफ होता चले। एक बात और भी है। यदि यह निश्चय हो कि सन्यास और योगके फल-स्वरूप जो स्थान या पद मिलते है, या मुक्ति होती है वह दो चीजे है, तो स्वभावत खयाल होगा कि सन्यासके ऊँचे दर्जेकी चीज होनेके कारण उसके फल-स्वरूप जिस वस्तुकी प्राप्ति होगी वह अवश्य ही श्रेष्ठ होगी, और श्रेष्ठ पदार्थ कौन नहीं चाहता ? इसलिये उसीकी आतुरता और लोभके चलते बहुत लोग फिर भी सन्यास पर जोर मार सकते है और असमय ही उस ओर पाँव बढा दे सकते है। अतएव यह बतानेकी जरूरत है कि दोनोके दो फल न होके दोनोका सम्मिलित फल एक ही है। चाहे सन्यासी हो या कर्मी हो, या आगे-पीछे दोनो ही हो, जायेंगे हरहालतमे एक ही स्थान पर । एक ही स्थानके रास्तेके ये दो विभाग है, न कि और कुछ । ऐसी दशामे एक तो बेचैनी और लोभ जाता रहेगा। दूसरे यह खयाल होगा कि जब रास्तेको पूरा ही करना है और पहले भागके पूरा करने पर ही दूसरा आयेगा तो जल्दवाजी क्यो करे ? ऐसा करनेसे मिलेगा भी क्या ? यही बात आगेके दो-४,५-श्लोकोमे स्पष्ट की गई है। कुछ लोगोको भ्रम हो सकता है और हो भी गया है कि श्लोकोके अनुसार यद्यपि फल है एक ही; तथापि दोनो मार्ग उसकी प्राप्तिके लिये स्वतत्र है, न कि एक ही लम्बे मार्गके ये दो पडाव है। मगर बात ऐसी नही है। चौथे श्लोकके पूर्वार्द्धके देखनेसे यह खयाल जरूर हो जाता है