६१२ गीता-हृदय (इस तरह) समझदार और मनपर काबू रखनेवाले कर्मोके फलोंसे नाता तोडके ब्रह्मनिष्ठा-जीवन्मुक्ति की शान्ति हासिल कर लेते हैं। (विपरीत उनके) जो लोग समझदार और मनको दबानेवाले नहीं है वे फलोमे लिपटके जन्ममरण आदिके वन्वनोमे फंसते है ।१२। ऊपरके तीन-१०-१२-श्लोकोको देखने और एक साथ मिलानेसे स्पष्ट हो जाता है कि इनमें जो बातें कही गई है वह आत्मज्ञानीको नहीं है। किन्तु साधारण कर्मियोकी ही है, जिन्हें योगी भी कहा है और युक्त भी। यह ठीक है कि वह गीताकी गिनतीमे आनेवाले है, न कि लम्पट । लम्पटोकी तो उलटे १२वें श्लोकके उत्तरार्द्धमें निन्दा की है, उनकी दुर्दशा लिखी है। इसीलिये १०वे श्लोकवाले "ब्रह्मण्याधाय"-"ब्रह्ममे स्थापित करके" का अर्थ हमने “यत्करोपि" (६।२७-२८) के अनुसार भगवानको समर्पण रूप पूजा ही किया है। ज्ञानियोको तो पहले ही कह दिया कि वह कर्मसे अपना ताल्लुक मानते ही नही है। फिर वे क्या उन्हे ब्रह्ममें रखेंगे? उन्हे कर्मोंसे लिपटनेका सवाल भी कहाँ आता है ? असलमें ये तो वही लोग है जो या तो भगवानकी पूजाकी ही भावनासे कर्म करके मनकी शुद्धि प्राप्त करते है, या सीधे इसी खयालसे कि कर्मसे मन शुद्धि हो। मगर यो तो निराधार कर्म होगा नही । मन शुद्धिके लिये करनेके भी तो कोई मानी नही जबतक कर्मोको कही एक जगह बांधा या एक ही लक्ष्यमें लगाया न जाय । फिर चाहे वह ईश्वर-पूजा हो, यज्ञ हो, या ऐसी ही और कोई चीज । इसीलिये पहले-१०-से मिलाकर ही ११वेंका अर्थ करना जरूरी हो गया है। बारहवेमे भी जो कर्मके फलके त्यागसे ब्रह्मनिष्ठावाली शान्तिकी प्राप्ति कही गई है वह भी क्रमश मनकी शुद्धि आदिके द्वारा ही होती है, न कि सीधे कर्मोसे ही। क्योकि केवल फलके त्यागनेपर भी कर्म तो रही जाता है, और जबतक दोनो न छूटे वह शान्ति मिलेगी कैसे ? मगर वह तो छूटेगे ज्ञानके बाद ही और वह प्राप्त
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