पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६०३

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पाँचवाँ अध्याय ६१३ होगा मनकी शुद्धि आदिके द्वारा ही। जब अध्यायके शुरूमें ही सभी प्रकारके कर्मोकी बात आई है तब तो ऐसे मन शुद्ध्यर्थ कर्मोका यहाँ निरू- पण ठीक ही है। अब रह जाती है ११वे श्लोकके उत्तरार्द्धकी एकाध बात । एक तो बुद्धिसे कर्म होते नहीं है। वे तो होते है सिर्फ शरीर या इन्द्रियोसे ही और दोनोका मददगार होनेके कारण मन भी उसी दलमे आ सकता है। मगर अगर बुद्धि या अक्ल ठीक हो, समझदारीसे काम लेके कर्मों या उनके फलोकी हाय-हायको छोड दे और फलोमे भी आसक्ति छोड दे, तो उन कर्मोसे यज्ञकी पूर्ति या भगवानकी पूजाकी भावनाके द्वारा मनकी शुद्धि हो जाती है। फिर तो वे कर्म केवल शरीर, मन या इन्द्रियोके ही रह जाते है। अर्थात् मन उनके करनेमे मददगार होनेपर भी फलमें नही सटता। बुद्धि भी नही चिपकती। ऐसी दशामें सबोकी सम्मिलित चीज वे रहें तो कैसे ? सम्मिलित होनेके लिये तो आसक्ति और हाय- तोबा जरूरी है । "केवलै" कहनेका यही मतलव है। यह "केवलै" विशेषण “कायेन, मनसा"का भी है। हमने ऐसा ही अर्थ लिखा भी है। अब आगे अध्यायके अन्ततक जो कुछ कहा गया है वह आत्म- ज्ञानियोके ही कर्मोंके सम्बन्धमे है। उनकी क्या भावना होती है, किस प्रकार सर्वत्र उनकी समदृष्टि होती है, इत्यादि बाते अत्यन्त विशद रूपमे आई है। सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी। नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥१३॥ मन और इन्द्रियोको अपने अधीन रखनेवाला देहका मालिक जीव मनके द्वारा विवेकसे सभी कर्मोका सन्यास करके नौ दरवाजेवाले पुरमे आरामसे रहता है (और) न कुछ करता है, न करवाता है ।१३। जैसे कोई महाराजा या वडा आदमी किसी गढमें रहता है जिसके